Loktantra Ki Chunatiyan
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9788181433299
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"अब तक दलित और पिछड़ों के जातीय उभार का नकारात्मक पहलू काफ़ी उजागर हुआ है। लेकिन लोगों की 'सेकुलर' आवश्यकताओं को जातीय 'गौरव' प्रदान कर बहुत दिनों तक नहीं टाला जा सकता। नेताओं के तामझाम की गरिमा में अपनी आर्थिक दैन्य को वे सदा के लिए नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकते । जातीय पिछड़ेपन के भाव से मुक्त होने पर वे आर्थिक मुद्दों पर अधिक ध्यान देने लगेंगे, भले ही जातीय नेता दूसरी जातियों से विवाद को जिलाने की कोशिश करते रहें। जैसे-जैसे दलित और अति पिछड़े राजनीति में महत्त्वपूर्ण होने लगेंगे वैसे-वैसे आर्थिक मुद्दों का महत्त्व साफ़ होगा क्योंकि ये जातियाँ लगभग बिना अपवाद, देश भर में भूमिहीन और सम्पत्तिहीन हैं जिनकी स्थिति सुधारने के लिए दो-चार लोगों को नौकरियों में आरक्षण देना बिल्कुल अपर्याप्त होगा और उनकी स्थिति अर्थव्यवस्था को समतामूलक बनाकर ही सुधारी जा सकती है। एक सीमा के बाद बिना आर्थिक समता के भेदभावहीन सामाजिक समरसता भी स्थापित नहीं की जा सकती। जैसे-जैसे आर्थिक और सामाजिक दूरियाँ कम होंगी, जातियों से ऊपर उठ लोग शुद्ध रूप से मनुष्य के रूप में संवाद स्थापित कर सकेंगे और लोकतन्त्र के बुनियादी भाईचारे की तरफ़ संक्रमण सम्भव होगा। इस दिशा में हाल के वर्षों में आया आर्थिक भूचाल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा । भूमण्डलीकृत दुनिया में सम्पत्ति के केन्द्रीकरण से उत्तरोत्तर बड़ी संख्या में लोग आर्थिक दृष्टि से समाज के हाशिए पर डाले जा रहे हैं। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों के अलावा तथाकथित अगड़ी जातियों के लोग भी भारी संख्या में अपने परिवेश से विस्थापित हो नगरों के फ़ुटपाथों और झुग्गियों में दरिद्रता के समान साँचे में ढाले जा रहे हैं ।
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ISBN
9788181433299