Magic Muhallaa - 2
'दिलीप कभी मुनासिब नाटकीयता के साथ और कभी बिना किसी नाटकीयता के, अपने ग़लत या कई बार अनैतिक समझे जाने का जोख़िम उठाकर कविता में सच कहने, सत्यकथन का लगातार दस्साहस करते थे। कठिन समय में सच भी कठिन होता है और उसे किसी आसान तरीक़े से समझा-कहा-खोजा नहीं जा सकता। दिलीप चित्रे का अपना काव्यशिल्प इस दहरी कठिनाई से जूझता कठिन शिल्प है जिसे सच की प्रामाणिकता अधिक प्यारी है, सरलता का आकर्षण प्रलोभन नहीं उसका अभीष्ट नहीं। उनकी कविता जगत्समीक्षा और आत्मसमीक्षा कई बार एक साथ है। हमें वही कवि अपने सच कहने से भरोसे का लगता है जो अपनी सचाई का भी निर्ममता से बखान कर सके। उनकी कविता कभी-कभी 'हरामज़ादी आवाज़' भी बन सके इस जतन से वे कभी विरत नहीं हुए। जो कविता हमारी जिजीविषा न बढ़ाये, जिज्ञासा न उकसाये, निरुपायता से मुक्त न करे, हमें अपने सबसे ख़राब सपनों का सामना करने की ताब न दे वह हमारे ज़्यादा काम या दिलचस्पी की नहीं हो सकती। दिलीप की कविता का वितान इतना विस्तत है कि उसमें अदम्य जिजीविषा, अपार जिज्ञासा, विकल्प की अथक तलाश और झुलसाने वाली ताब के क्षण बार-बार कभी अकेले, कभी और तत्त्वों के साथ सहज ही मिलते रहते हैं। वह एक स्तर पर एक बेचैन- नाराज़-चीखते कवि का आदमीनामा है जो दूसरी ओर एक ऐसे समय का छोटे-छोटे, कई बार बेहद घरेलू ब्योरों में चरितार्थ और विन्यस्त आख्यान जिससे क्रान्तियों की विफलता राजनीति और धर्म के विद्रूप, भारतीय समाज की बढ़ती हिंसा, आर्थिकी द्वारा लादी जा रही गोदामियत, विचार को अपदस्थ करने के षड्यन्त्र, भाषा का सचाई से बढ़ता विच्छेद और और आत्म और व्यक्ति के तरह-तरह के अवमूल्यन देखे-सहे हैं। ऐसे तुमुल में दिलीप उन कवियों में रहे हैं जिन्होंने मानवीय अन्तःकरण, प्रतिरोध और प्रश्नवाचकता की आवाज़ को कविता के रूप में बचाने, उसके लिए जगह बनाने की असमाप्य चेष्टा की।’ -अशोक वाजपेयी