Mahaaranya Mein Giddha

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महाअरण्य में गिद्ध -प्रस्तुत उपन्यास महुए की गन्ध से महमहाते और मान्दल की थाप से तरंगायित होते झारखण्ड के महाअरण्य में नर——गिद्धों से संघर्षरत एक भूमिगत संगठन के 'एरिया कमांडर' ददुआ मानकी के संघर्ष, अमर्ष और अन्ततः नेतृत्व से मोहभंग की कथा है।
झारखण्ड को मात्र एक राजनैतिक-भौगोलिक स्वतन्त्रता की समस्या मानकर पृथक राज्य के सरलीकृत एवं तथाकथित अन्तिम समाधान के विरुद्ध खड़ा है बनैली अस्मिता का प्रतीक पुरुष ददुआ मानकी।
भूमि पर उगा हरा सोना और झारखण्ड की भूमि के रत्नगर्भ से आकर्षित होते रहे हैं कुषाण, गुप्त, वर्द्धन, मौर्य, पाल प्रतिहार, खारवेल, राष्ट्रकूट, मुग़ल, तुर्क, पठान और अंग्रेज़...। अब अरण्य का रक्त मांस निचोड़ रहे हैं देसी पहाड़चोर, वन तस्कर, श्रम दस्यु और नारी देह के आखेटक! शिकार की मज्जा तक चूस कर, अस्थि-पिंजर शेष तक को बेचकर लाभ लूटने में जुटे हैं ये नरगिद्ध! इन्हीं गिद्धों से संघर्षरत है अधेड़ ददुआ मानकी!
झारखण्ड आन्दोलन और इसकी निष्पत्ति-बिहार! विभाजन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत यह उपन्यास तिलस्मी अँधेरे में डूबे झारखण्ड के मायावी महाअरण्य में शोषणतन्त्र के कुचक्र का यथार्थपरक चित्रण मात्र नहीं है वरन् अरण्य को उसकी मनोहारिता, भयावहता तथा बिहार विभाजन के निहितार्थों के साथ साहित्य सुलगते सवाल की भाँति दर्ज कराने के दस्तावेज़ी प्रयास है।

ISBN
9789326352888
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