Makhan Lal Chaturvedi Rachanawali (10 Volume Set )
माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली – 1 -
माखनलाल चतुर्वेदी ने लगातार एक भारतीय अस्मिता को स्थापित करने का प्रयत्न किया, जो स्वाधीनता संघर्ष के युग सन्दर्भ में कोई अचरज की बात नहीं थी, पर समाज को आत्मवान बनाये रखने में भी अविराम भाव से लगे रहे-उन परिस्थितियों में भी जिनमें शरीर भी संकटापन्न रहता है और उस मानसिकता के बीच भी जो सैक्युलरिज़्म के नाम पर आत्मा को ही बिल्कुल नकार देना चाहती थी। सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भ में ये दो बातें कहकर साहित्यिक सन्दर्भ में यह भी कहूँ कि उस युग में, जब अधिकतर लेखक एक विखण्डित व्यक्तित्व वाले लेखक होने लगे थे, माखनलालजी के अखण्डित व्यक्तित्व ने अपने समकालीनों के सामने एक आदर्श भी रखा, एक चुनौती भी खड़ी की। किसी भी देश, किसी भी समाज के लिए अखण्ड व्यक्तित्व बहुत बड़ी उपलब्धि होता है। -स. ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय'
चतुर्वेदीजी के साहित्यिक रूप का परिचय मुझे उनके नाटक "कृष्णार्जुन-युद्ध" से पहले-पहल प्राप्त हुआ था। मुझे स्मरण है कि इसे पहली बार पढ़ने पर दो प्रभाव पड़े थे। एक तो यह कि देश के प्राचीन कथानकों को लेकर आधुनिक काल की समस्याओं पर किस प्रकार नया प्रकाश डाला जा सकता है। दूसरे यह कि हिन्दी में साहित्यिक नाटक भी रंग-मंच की दृष्टि से सफलता के साथ लिखा जा सकता है। यह वास्तव में खेद का विषय है कि इस परम्परा को हिन्दी नाटक साहित्य के अन्तर्गत आगे विकसित नहीं किया गया। -डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
प. माखनलाल चतुर्वेदी ने एक साधारण स्कूल मास्टर को हैसियत से उठकर अपने ढंग का जो अनोखा, प्रतापी और मौलिक व्यक्तित्व निर्माण किया है वह सचमुच ही अभिनन्दनीय है', 'वे एक साथ ही शूरातन और श्रृंगार, रस और तेज़, प्रणय और प्रताप के कवि हैं। - के.एम. मुंशी
उनका जो कुछ भी साहित्य मैंने पढ़ा है उसमें विचारों की और भावनाओं की आर्यता ही मैंने पायी है। उनके कारण हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि हुई है। उनकी रसिकता से भी लोग प्रभावित हुए हैं उनका स्मरण होने मात्र से चित्त प्रसन्न होता है। -काका कालेलकर
यह नाटक चरित्र प्रधान न होकर विचार प्रधान हो गया है। कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय में घटना और पात्र इस प्रकार घुल-मिल गये हैं कि उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व मुखरित नहीं होता और न्याय के लिए बलिदान ही मुख्य रूप में समाज के सामने आता है। अतएव इसे न तो घटना-प्रधान और न ही चरित्र प्रधान कहा जा सकता है। अतः इसे विचार प्रधान नाटक कहना ही उचित होगा। पं. माखनलाल ने भारतेन्दु और प्रसाद युग की नाट्यकला को जोड़ने के लिए एक श्रृंखला का कार्य किया। नाटक में विचारों पर बल देना आधुनिक युग की नाट्यकला की विशेषता है। इस मेधावी साहित्यकार ने नाटक को एक नवीन दिशा में मोड़कर नाट्य-क्षेत्र में स्तुत्य कार्य किया। -डॉ. दशरथ ओझा
...जब हम माखनलालजी के समस्त गद्य-लेखन पर दृष्टि डालते हैं, तो हमें उसके वैविध्य को देखकर आश्चर्य होता है, कहीं राष्ट्रीय भावना का ओजस्वी प्रकाशन है, कहीं लेखन के सामाजिक दायित्व का आग्रहपूर्ण निवेदन है और कही लेखक दृश्यों और पात्रों के अंकन में रत है और कहीं-कहीं अपने वैष्णव भाव को लिए हुए चिन्तन की गहराइयों में खो गया है। -डॉ. प्रेमशंकर
अन्तिम पृष्ठ -
कितने संकट के दिन हैं ये। व्यक्ति ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ भूख की बाज़ार-दर बढ़ गयी है, पायी हुई स्वतन्त्रता की बाज़ार-दर घट गयी है। पेट के ऊपर हृदय और सिर रखकर चलने वाला भारतीय मानव मानो हृदय और सिर पर पेट रखकर चल रहा है। खाद्य पदार्थों की बाज़ार-दर बढ़ी हुई है और चरित्र की बाज़ार-दर गिर गयी है।