Meri Pehchan
मेरी पहचान -
पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को अमूमन इस नयेपन की सम्पूर्ण प्रक्रिया से दूर रखने की कोशिश करती है। साहित्य-कला में ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में ये अनुभवी वरिष्ठ पीढ़ी अपनी अनगिनत पराजय को मस्तिष्क में कहीं छुपाकर पालती-पोसती है और फिर तमाम उम्र तरह-तरह से परोसती है। अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए अनुशासन के नाम पर आने वाले कल को सीमाओं में बाँधने का प्रयास करती है। अपने डर को अनुभव की चाशनी में डुबोकर एक स्वतन्त्र पीढ़ी के नैसर्गिक विकास पर रोक लगाती है। बुजुर्ग सहयोग नहीं करते, सलाह-मशविरा नहीं देते, मार्गदर्शन नहीं करते, स्वयं नेतृत्व करने लग पड़ते हैं। सुनना पसन्द नहीं करते, न मानने पर पूरा संसार सिर पर उठा लेते हैं। आँसुओं में सारे संस्कारों को डुबो दिया जाता है। भावनाओं में सब कुछ भिगो दिया जाता है। संस्कृति व सभ्यता पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। पुरानी पीढ़ी अधिकारों की बात तो करती है मगर कर्तव्य से दूर ही रहती है। बचती है। वो तो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के साथ जीती है। और दूसरों के साथ खेलती है। अपनी चूकी हुई बातों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करती है। पकी उम्र में भी अपने सपने बोये जाते हैं। अपने विचार-दृष्टिकोण यहाँ तक कि पसन्द-नापसन्द को भी थोपा जाता है। तर्क से, प्यार से, रिश्तों के बन्धन से कभी-कभी धर्म के नाम पर। कहीं-कहीं बलपूर्वक भी। क़िस्से कहानी और इतिहास की दुहाई देकर। और यहीं रुक जाता है नयी पीढ़ी का विकासक्रम, उनका कल्पनाओं में उड़ने का प्रयास नये और पुराने के बीच यह अन्तद्वन्द्व जारी है और सदा रहेगा। अगर हम इससे बच सकें तो अगली पीढ़ी को एक स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए वातावरण दे सकते हैं। जहाँ वो नये आकाश को छूने के लिए उड़ सकेंगे।
- भूमिका से
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
... 'तिमंज़िला मकान वाले पण्डित नहीं रहे, शहर के अधिकांश बुजुर्ग अब इसी नाम से पहचानते थे। हमारा, क़स्बे में पहला तीन मंज़िला मकान था। अब तो कई बन गये। कुछ तो चार फ्लोर तक चले गये। कुरैशी ने से पहले बनाया था। तब से बड़ा लड़का नाराज रहता था। हमारी शान और पहचान ख़त्म हुई थी। कुरैशी की बढ़ती जा रही थी। सफ़ेद छोटा अलीगढ़ी पायजामा, चेहरे पर विशिष्ट पहचान कराती दाढ़ी और सर पर सफ़ेद गोल टोपी अलग से दिखता था कि मुसलमान है। तभी से बड़े लड़के ने भी तिलक लगाना शुरू कर दिया था लम्बा तिलक लगाकर वो, एक हिन्दू पार्टी में तिलकधारी के नाम से मशहूर या। क़स्बे के नेता जब 'तिलकधारी के पिता' के नाम से मुझे पुकारते तो बड़ी ख़ुशी होती थी। तिलकधारी के पिता का देहान्त, मतलब नेताजी के घर शोक, मोहल्ले में भीड़ होनी चाहिए। इज़्ज़त वाली बात थी। फिर पोता भी तो बड़ा ठेकेदार बन चुका था, मुन्नाभाई दादा को पोते से तो वैसे भी प्यार कुछ ज़्यादा ही होता है। 'मुन्नाभाई के दादा', इस सम्बोधन को सुनकर मुझे गर्व होता था। मैं चालीस-बयालीस और तिलकधारी बीस-इक्कीस का होगा जब मुन्ना हो गया था। अब तो वो ख़ुद भी पैंतालीस के ऊपर का होगा और स्वयं दादा भी बन चुका है। इसी की बहू ने तो पहली लड़की के बाद बच्चे के लिए मना किया हुआ है। दोनों पति-पत्नी कमाते हैं और पास के शहर में रहते हैं। सुनते कहाँ थे। कितना समझाया था कि मुझे परपोते के लड़के का मुँह दिखा दो। दोनों सुनकर मुस्कुरा देते थे। बस....
-पुस्तक से