Nagarjun Samvad
नागार्जुन संवाद -
बौद्धिक क्षेत्रों में तो ज़बरदस्त ग़ुलामी चल रही है। कौन कितना अपने को कठमुल्ला साबित कर सकता है। पराये साहित्य का जूठन ले कर कूड़ा परोस सकता है।
प्रगतिशील कवियों को देखो, वे कितने सिकुड़ते जा रहे हैं। अपने ही प्रतीकों को छोड़ रहे हैं। नेरुदा और चे ग्वारा किस तरह अपने प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसे न सीख कर ये लोग अपने प्रतीकों से नफ़रत करते हैं और बात करते हैं जातीय इतिहास की।
हमने अपनी भाभी से एक बार कहा, पाँच साल के लिए मैं महिला बनना चाहता हूँ। हाँ महिला, तो भाभी ने कहा – पाँच साल ही क्यों? तो मैंने कहा- पाँच साल में पहला काम तो यह कि मैं माँ बनूँगा तो मातृत्व के जो आँसू होते हैं न, वो मरदों की रुलाई के जो विषाक्त आँसू होते हैं, उससे अलग होते हैं, मैं निकट से उनका अनुभव करूँगा। जैसे बहुत बड़ा अन्यायी है इलाक़े का बहुत बड़े दुष्ट को तत्काल समाप्त करने के लिए नक्सलवाद बड़ा उपयोगी है। ये त्वरित चिकित्सा हुई। इसको समाज मूक सहमति देता है। गीता का कर्मयोग आज यही है।
महिलाएँ वियोग और अपमान में से वियोग का वरण तो कर लेंगी पर अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पातीं। वे धीरे-धीरे इसका बदला लेती हैं। जैसे-जैसे उनकी समझदारी बढ़ती जाती है, उनके प्रतिशोध का रूप और गहरा होता जाता है।
तो ऐसे थे बाबा नागार्जुन – जितने सीधे और सहज उतने ही प्रखर और बेबाक। उनका जीने का ढंग अपना था, सोचने का तरीक़ा अपना था और रचना करने की विधि तो अपनी थी ही। नागार्जुन न किसी वाद से बँधे थे, न किसी पैटर्न से। साहित्य की सभी विधाओं में उन्होंने अपनी अलग लीक बनायी और एक नयी चमक पैदा की। शास्त्र और लोक का ऐसा रचनात्मक संयोग विरल है। वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह की यह पुस्तक घरेलू माहौल में नागार्जुन से निरन्तर संवाद की असम्पादित डायरी है। इसके खुले पन्नों पर नागार्जुन के बहुआयामी व्यक्तित्व की लगभग सभी परतें पढ़ी जा सकती हैं, जिसके बिना इस विलक्षण सर्जक को समझ पाना असम्भव है।