Nai Kavita : Nirala, Ajneya Aur Muktibodh
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"नई कविता : निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध - उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद, वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) और सूचना क्रान्ति के साथ-साथ विश्व के स्तर पर बढ़ रहे क्रूर आतंकवाद और वैचारिक ध्रुवीकरण ने विकास के समानान्तर विध्वंस की जो अमानवीय तस्वीर हमारे सामने गढ़ी है उसमें कविता का महत्त्व कम और नगण्य होने की बजाय बढ़ा ही अधिक है।
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प्रगति और प्रयोग की सीमाएँ छोड़कर नई कविता ने अपनी वस्तु और दृष्टि दोनों को व्यापक विस्तार दिया, मानवता को खोजा और उसे उसकी वास्तविकता के साथ प्रतिष्ठित किया; इस अर्थ में नई कविता मानववादी कही जा सकती है।
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तात्पर्य यह है कि यह नहीं कि हिन्दी में ही छायावाद के ख़िलाफ़ बगावत हो गयी, लगभग पूरी भारतीय कविता में जो रामांटिक भावबोध था, जो कल्पना का संसार था उसके ख़िलाफ़ एक प्रबल विद्रोह हुआ।
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मुक्त आसंग की ही सजातीय पद्धतियाँ हैं स्वप्नचित्रण, स्वैरकल्पना (फैंटेसी) विरूपीकरण (डिस्टॉर्शन) आदि जिनका उपयोग नये कवियों ने किया है। इन पद्धतियों के द्वारा एक शब्द दूसरे शब्द की संगति या विसंगति में नये अर्थ की व्यंजना करने लगता है।
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तुलसीदास, राम और वेदान्त निराला के लिए अभिजात्य का नहीं जन संस्कृति का पर्याय है। तुलसीदास के साक्ष्य पर कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक क्षय को लेकर उनकी व्यग्रता का एक पक्ष राजनीतिक पराजय का क्षोभ है, दूसरा पक्ष सामाजिक विशृंखलता का है जिसे वह वर्ण व्यवस्था का विघटन कहकर समझते हैं। तीसरा पक्ष पहले दोनों पक्षों से उत्पन्न दीन-हीन सामान्य जन की आर्थिक शोचनीयता का दर्द है।
इसी पुस्तक से...
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ISBN
9788181430441