Nibandhon Ki Duniya : Jainendra Kumar
निबन्धों की दुनिया - जैनेन्द्र कुमार -
ऐसे निबन्धों में कहानीकार जैनेन्द्र पाठक का हाथ पकड़कर जिस यात्रा पर निकलता है उसमें कुछ दूर जाकर उसे चिन्तक जैनेन्द्र को पकड़ा देता है और ख़ुद एक तरफ़ हो जाता है। उनके निबन्धों में कहानीकार और विचारक जैनेन्द्र को यह आवाजाही बराबर बनी रहती है। इस कौशल का सबसे प्रभावी रूप उनके निबन्ध 'जड़ की बात' में दिखाई पड़ता है। बात इस दृश्य के वर्णन से शुरू होती है कि एक रोज़ सड़क के किनारे धूप में एक आदमी पड़ा है, जो हड्डियों का ढाँचा रह गया है और मिनटों का मेहमान है। चलती सड़क पर आते-जाते लोग उसकी तरफ़ देखते और बढ़ जाते हैं। उसी सड़क पर एक मोटर चलते-चलते रुकती है। उसमें से उतरकर दो आदमी पीछे की ओर जाते हैं जहाँ उन्हें एक रुपया सड़क पर पड़ा मिलता है। इस रुपए को उन्होंने शायद चलती मोटर से देखा था। वे उसी के लिए मोटर से उतरे थे।
कहने का यह शुरुआती अन्दाज़ कहानीकार का है। पर इस वास्तविक या कल्पित दृश्य पर टिप्पणी बौद्धिक की है: "आदमी मरने के लिए आदमी की ओर से छुट्टी पा गया है। कारण, पैसे की क़ीमत है। आदमी की क़ीमत नहीं है।" यहीं से सूत्र निबन्धकार के हाथ में आ जाता है क्योंकि वह जानना चाहता है कि "यह अनर्थ कैसे होने में आया?" इस प्रश्न के घेरे में जवाबदेही के लिए व्यवस्था, शासन, समूचा तन्त्र, वे सब आ जाते हैं जो समाज में असमानता के लिए ज़िम्मेदार हैं। जिनके कारण ऐसे दृश्यों की सम्भावना बनती है कि कोई मनुष्य भुखमरी और उपेक्षा से सड़क के किनारे मरने के लिए विवश हो। इसी से व्यवस्था के विरुद्ध घृणा की त्रासकारी शक्तियाँ संघटित होकर मानो क्रान्ति के लिए इकट्ठा होती हैं क्योंकि सत्ता प्रभुता की ही नहीं त्रास की भी होती है।
निबन्धों में जैनेन्द्र का यह अन्दाज़ बराबर बना रहा है।