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पाँच जोड़ बाँसुरी - 
हिन्दी काव्य को गीतों की एक समृद्ध परम्परा उत्तराधिकार में प्राप्त है। किन्तु इधर यह कहा गया है कि गीत की विधा निष्प्राण हो गयी है—इतिहास के गर्भ में विलीन हो गयी है। क्या यह सत्य है? इसका सही उत्तर आपको मिलेगा प्रस्तुत संकलन 'पाँच जोड़ बाँसुरी' में। यह कृति प्रमाणित करती है कि आधुनिकता के सम्पूर्ण बोध की क्षमता गीतकारों में है, अतः गीत की विधा क्रियाशील है और वह रूपगत प्रयोगों का माध्यम बनी। प्रस्तुत संकलन के सम्पादक डॉ. चन्द्रदेव सिंह ने ठीक ही कहा है कि 'आज का गीत न तो लोकजीवन से विमुख है न नागरिक जीवन से उपेक्षित, न तो राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में बद्ध है और न ही अन्तरराष्ट्रीय स्थितियों से तटस्थ। नया गीतकार अपने परिवेश के प्रति सजग तथा अस्तित्व के प्रति व्यापक रूप से सतर्क है।'
हिन्दी गीत ने निरन्तर अपनी सीमाएँ तोड़ी और अपने दायरे को नदी के पाट की तर विस्तृत किया है। हिन्दी गीतों की संवेदना जन-जन के मर्म को छूती है। इनमें निजता भी है और लोक-जीवन भी है, युग चेतना है पर दिखावटी बौद्धिकता नहीं है। गीतकार मर्म के कवि होते हैं इसलिए अनास्था के बीच भी उनके गीतों में आस्था की राह नज़र आती है। गीत-साहित्य की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। यही कारण है कि हिन्दी के चालीस गीतकारों का यह संकलन 'पाँच जोड़ बाँसुरी' सन् 1947 से 67 तक यानी महाप्राण निराल से लेकर उनकी परवर्ती पाँच पीढ़ियों की गीत-यात्रा की सांगीतिक उपलब्धियों की प्रस्तुति है, जो सातवें दशक के अन्त में प्रकाशित होने के बावजूद आज भी निरन्तर प्रासंगिक बना हुआ है।
पुस्तक के अन्त में भगवतशरण उपाध्याय, हरिवंशराय बच्चन, विद्यानिवास मिश्र, ठाकुरप्रसाद सिंह और केदारनाथ सिंह जैसे साहित्य-सर्जकों ने गीत-विधा के विभिन्न पक्षों का ऐसा विश्लेषण किया है जिसने पाठकों को काफ़ी लाभान्वित किया। इस विधा विशेष को निरन्तर उपेक्षित किये जाने की पूर्वाग्रह-ग्रस्त मानसिकता पर भी ये आलेख प्रश्नचिह्न लगाते हैं और पाठकों को वस्तुस्थिति से परिचित कराने का प्रयत्न करते हैं।
हिन्दी के सहृदय पाठकों के विशेष आग्रह पर प्रस्तुत है वर्षों से अलभ्य इस संकलन का अद्यतन संस्करण।

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Paanch Jor Baansuree
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