Paangira
पांगिरा -
'पांगिरा' में रोशनी और अँधर की वही धड़कनें हैं, उसकी मिट्टी और मोसम के वही रंग और मिजाज़ हैं, वही राग और विराग हैं, आपाधापी और जद्दोजहद हैं, धूल फूल पत्तों की सरसराहट भी वैसी ही है-जो आज के किसी भी भारतीय गाँव में सहज उजागर है।
'पांगिरा' -महाराष्ट्र का एक आधुनिक भारतीय गाँव-इस उपन्यास का केन्द्रीय कथानायक है। दरअसल, पांगिरा एक ऐसा विराट् कैनवास है जिस पर तमाम चलती हुई गतियों में फँसे लोगों की बहुरूपी तसवीरें हैं, जो अपने-अपने तरीके से इस उपन्यास को ख़ुश और उदास अर्थ देते हैं-पूरी आत्मीयता और सजगता के साथ। - और शायद इसीलिए 'पांगिरा' उपन्यास को एक सशक्त सामाजिक दस्तावेज़ कहना ग़लत नहीं होगा। क्योंकि मराठी भाषा के प्रख्यात उपन्यासकार श्री विश्वास पाटिल ने इस प्रतीकात्मक सामाजिक दस्तावेज़ के ज़रिये जीवन की सार्थक परिभाषा को तलाश करना चाहा है।
मूल मराठी से अनूदित इस बहुचर्चित उपन्यास की अपनी अनुवादगत सीमाएँ हैं, लेकिन गाँव का यह महाकाव्य हिन्दी के उपन्यास-प्रेमी पाठकों को रोचक, रोमांचक और सुखद अनुभव देगा।