Pachrang Chola Pahar Sakhi Ri
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मीरां की कविता को सदियों तक लोक ने अपने सुख-दुःख और भावनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम की तरह बरता इसलिए यह धीरे-धीरे ऐसी हो गयी कि सभी को उसमें अपने लिए जगह और गुंजाइश नजर आने लगी और इससे साँचों-खाँचों में काट-बाँट कर अपनी-अपनी मीरांएँ गढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। धार्मिक आख्यानकार केवल उसकी भक्ति पर ठहर गये, जबकि उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने उसके जीवन को अपने हिसाब से प्रेम, रोमांस और रहस्य का आख्यान बना दिया। वामपन्थियों ने केवल उसकी सत्ता से नाराजगी और विद्रोह को देखा, तो स्त्री विमर्शकारों ने अपने को केवल उसके साहस और स्वेच्छाचार तक सीमित कर लिया। इस उठापटक और अपनी-अपनी मीरां गढ़ने की कवायद में मीरां का वह स्त्री अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया जो उसकी कविता में बहुत मुखर है और जिसके संकेत उससे सम्बन्धित आख्यानों, लोक स्मृतियों और इतिहास में भी मौजूद हैं। 'पचरंग चोला पहर सखी री' में मीरां के छवि निर्माण की प्रक्रियाओं को समझने के साथ विभिन्न स्रोतों में उपलब्ध उसके स्त्री अनुभव और संघर्ष के संकेतों की पहचान और विस्तार का प्रयास है। मीरां इतिहास, आख्यान, लोक और कविता में से किसी एक में नहीं है-वह इन सभी में है, इसलिए उसकी खोज और पहचान में यहाँ इन सभी ने गवाही दी है। मीरां का स्वर हाशिए का नहीं, उसके अपने जीवन्त और गतिशील समाज का सामान्य स्वर है। यह वह समाज है जो मीरां को होने के लिए जगह तो देता ही है, उसको सदियों तक अपनी स्मृति और सिर-माथे पर भी रखता है। यहाँ पहली बार इस समाज की अपने ढंग की नयी पहचान भी है और खास बात यह है कि इस पहचान में कोई औपनिवेशिक, वामपन्थी और अस्मिता विमर्शी साँचा-खाँचा और आग्रह नहीं है । यहाँ इस समाज की पहचान में निर्भरता दैनंदिन जीवन व्यवहारों और अपने देश भाषा स्रोतों पर है। इस किताब का स्वाद अलग और नया है। हिन्दी की पारम्परिक ठोस-ठस आलोचना से अलग इतिहास, आलोचना और आख्यान के मिलेजुले आस्वाद वाली यह किताब उपन्यास की तरह रोचक और पठनीय है और खास बात यह कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है। उम्मीद की जा सकती है कि मीरां के जीवन और समाज को सर्वथा नये ढब और ढंग से खोजती यह किताब हिन्दी आलोचना के लिए एक नया प्रस्थान बिन्दु सिद्ध होगी।
ISBN
9789350729250