Pant Ka Uttar Kavya
पन्त का उत्तर-काव्य -
श्री सुमित्रानन्दन पन्त की अनेक अबूझ मुद्राएँ आज अपने अर्थगर्भ उन्मेष के लिए आकुल हैं। आधुनिक हिन्दी समीक्षक या तो खेमेवादी आलोचना के कारण उनके साथ न्याय नहीं कर पाते, या आधुनिकता की बनी बनायी धारणाओं के चलते उनसे तालमेल नहीं बिठा पाते। डॉ. मीरा श्रीवास्तव की पन्त पर यह दूसरी कृति पन्त के 'उत्तर-काव्य' के प्रति समीक्षकों की उदासीनता, प्रहार या प्रशंसा से अलग जाकर उसकी मूल संवेद्यताओं में गहरे उतरते हुए कई अमूल्य बिन्दुओं को उभारती है। अपने उत्तर-काव्य में पन्त की रचनात्मक प्रेरणा अन्तश्चेतना के जिन अमृत स्रोतों की ऊर्ध्वता या गहराई तक पहुँची है उसके साथ हिन्दी समीक्षा से न्याय की आशा करना अब एक दुराशा जैसा ही लगता है। क्योंकि, सम्प्रति दिग्गज समीक्षकों ने छायावादी रहस्यवाद को कुंठा का जामा पहना दिया है। समीक्षा के इस ख़तरनाक मुहाने पर जा गिरने की नियति में अन्तश्चैतन्यमूलक काव्य का कोई सार्थक अन्वेषण और अनुवीक्षण हमें न केवल वस्तुवादी अन्धता से उबारता है वरन् ऐसे काव्य-मर्म के प्रति आश्वस्त भी करता है। डॉ. मीरा श्रीवास्तव की यह कृति समीक्षा के क्षेत्र में इसी दुर्लभ विशेषता के कारण रेखांकित हो उठती है। पन्त के बाद के काव्य को सही अर्थों में उत्तर या अतिक्रम के अनेक सूक्ष्म छायार्थों के साथ समीक्षित करती है। यह सृजनात्मक आलोचना, जिसमें मानवचेतना की छिपी अन्तःसलिलाओं को उजागर करते हुए उन्हें युग-सन्दर्भ में आँका गया है। पश्चिमी चश्मों को उतार कर इन सदानीरा स्रोतों को देखा गया है, क्योंकि यह अन्तश्चेतना फ्रायड के इशारों पर नहीं नाचती। उसके लिए स्वयं अन्तश्चैतन्यमूलक दृष्टि विकसित करनी पड़ती है, जो विरल है। 'पन्त का उत्तर-काव्य' समीक्षा के क्षेत्र में इसी विरल दृष्टि का उन्मेष करता है। हिन्दी समीक्षा से निष्कासित उदात्त और मधुर को यह कृति आधुनिक मनस् में नए मानों के साथ प्रतिष्ठित करती है। डॉ. मीरा श्रीवास्तव की यही उपलब्धि है, और है हिन्दी समीक्षा को एक चुनौती भी।