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परतें -
तमिल और अंग्रेज़ी में समान रूप से रचनारत संवेदनशील लक्ष्मी कण्णन् की हर कहानी एक अनूठा रंग, एक अनोखी पहचान लिए हुए होती है। उनकी कहानियाँ अन्तश्चेतना की हर परत को छूती हुई पाठकों को बाध्य करती हैं कि वे अपने ऊपर ओढ़ी हुई परतों को एक-एक कर उतार कर अपने 'स्व' के प्रत्यक्ष खड़े हो जायें। स्वयं लेखिका की यह खोज अत्यन्त छटपटाहट व व्याकुलता से भरी हुई है।
इस संग्रह की कहानियों में एक ओर जहाँ 'गहराता शून्यबोध' का नायक अपने स्थायी और अस्थायी अस्तित्व के मध्य झूलता हुआ अपने आपको दफ़्तर की फाइलों या मेज़-कुर्सी की दरारों में से झाँक रहे दीमक के कीड़े से अधिक नहीं मानता, वहीं दूसरी ओर 'सव्यसाची का चौराहा' का वह वृद्ध अंग्रेज़ भारतीय दर्शन को साकार करता हुआ मानवीय अस्तित्व को एक चरम बिन्दु पर ला देता है।
लक्ष्मी कण्णन् की हर कहानी में समसामयिक प्रश्नों के साथ-साथ एक खोज की साध है, एक एकाकीपन, जिसमें जीते हुए पात्र अपने 'स्व' की तलाश में प्रयत्नशील हैं। जहाँ इन रचनाओं में ऐसे गम्भीर स्वरों का आलोड़न है, वहीं दूसरी ओर 'कस्तूरी' और 'हर सिंगार' की भीनी-भीनी महक द्वारा मानव-मन की गहराइयों तक पहुँचने का सफल प्रयास भी किया गया है।
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
वह शरीर उस सफ़ेद कपड़े में लिपटा इस तरह लग रहा था मानों साँचे में ढाल दिया गया हो। सिर गोलाकार नज़र आ रहा था। चेहरा थोड़ा उठा हुआ। कन्धे, धड़, लम्बी टाँगें और ऊपर की ओर किये हुए पैर। मानो वह उड़ने को तैयार है और अब वह उड़ चुका। सब कुछ ख़त्म हो गया। अब बैठकर छाती फाड़-फाड़कर रोने के लिए समय ही समय है, जैसे यह जनसमूह बिलख रहा है...
उस जनसमूह में से निकलकर वह उस खिड़की की तरफ़ दौड़ा, जहाँ चन्द्रा लेटी थी। वह हमेशा की तरह बिना हिले-डुले पड़ी थी। रामचन्द्रन की आँखें भर आयी थीं और गला सूखने लगा था। उसकी जीभ तालू से सट गयी थी। चन्द्रा क्या तुम भी मर...। चन्द्रा मेरी प्राण, मत जाओ। थोड़ा और सहन कर लो...। मुझे माफ़ कर दो। अपने घटिया विचारों के लिए मुझे बड़ा दुःख है। मैं बड़ा शर्मिन्दा हूँ। आशा और तुम्हारे माता-पिता की मैं अच्छी तरह देखभाल करूँगा। मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। बस तुम मुझे छोड़कर मत जाना..