Paryavaran Aur Samkaleen Hindi Sahitya
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पर्यावरण और समकालीन हिन्दी साहित्य - पर्यावरणीय विध्वंस का परिणाम मानव के लिए और घातक सिद्ध होता जा रहा है। मनुष्य प्रकृति में हस्तक्षेप करता है। पर्यावरण विमर्श के आलोक में पर्यावरण और साहित्य के सह-सम्बन्ध पर अध्ययन करते समय पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों तक उस अध्ययन को सीमित रखना विषय को लघु बनाने के बराबर है। साहित्य का सम्बन्ध मानव के सांस्कृतिक धरातल से है, इसलिए सांस्कृतिक पर्यावरण को इस चचा से बाहर करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। अतः यहाँ पर्यावरण समस्याओं से तात्पर्य केवल पर्यावरण में होने वाले फेर-बदल से मात्र नहीं है। इसलिए विषय के वैज्ञानिक विवेचन के सन्दर्भ में प्रकृति के साथ हुए द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध के आधार पर विकसित हुई संस्कृति एवं सभ्यता में पर्यावरण विनाश और पूँजीवादी संस्कृति से होने वाले परिवर्तनों पर भी विचार करना होगा जिससे विषय को व्यापकता एवं अर्थवत्ता प्राप्त होगी । अतः आज के मनुष्य का संघर्ष अपनी पृथ्वी को, अपनी संस्कृति को, अपनी जैविक अस्मिता को तथा आगामी पीढ़ी की ज़िन्दगी को कल्याणमय बनाने का संघर्ष है। आज का संवेदनशील मन प्रकृति के समस्त चर-अचर के साथ भावात्मक स्तर पर अभिन्नत्व की कल्पना करता है तथा हर वस्तु के भीतर समाये हुए चैतन्य का अंगीकार करता है। साहित्य पूँजी के विस्तार के परिणाम स्वरूप विकसित औद्योगिकीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाज़ारीकरण, भूमण्डलीकरण, पर्यावरण विध्वंस, वैयक्तिकरण, पृथक्करण, प्रदूषण आदि का साहस के साथ प्रतिरोध करता है। सत्ता एवं धन की शक्तियों के अमानवीय पक्ष को समकालीन साहित्य खोलकर सामने रखता है। यह प्रतिरोध निर्माणात्मक सामाजिक कार्यकलाप है, सामाजिक परिवर्तन की आधारशिला है। यह प्रतिरोधात्मक संघर्ष नवीन विकल्पों को हमारे सामने पेश करता है।
ISBN
9789388684095