Patrakarita Ki Khurdari Zameen
पत्रकारिता की खुरदरी ज़मीन -
पिछले एक-डेढ़ दशक में पत्रकारिता बहुत तेज़ी से बदली है। बदलावों की शुरुआत भूमण्डलीकरण की पहली खेप के साथ ही होने लगी थी। इन वर्षों में 'प्रेस' देखते-देखते 'मीडिया' हो गया। मीडिया धन्धे में तब्दील होने लगा और धन्धे के लिए या तो मनोरंजन करने लगा या सूचनात्मक और प्रचारात्मक ख़बरों को तरजीह देने लगा। ख़बर की भाषा और कंटेंट बदलते-बदलते आज वास्तविक ख़बर हाशिये पर जाती दिख रही है। पत्रकार और पत्रकारिता को जिनके साथ खड़ा दिखाई देना चाहिए, उनकी सुध लेना उसने लगभग बन्द कर दिया। लोकतन्त्र का यह चौथा पाया एक तरह से शहरी मध्यवर्ग का कूड़ादान बन गया, क्योंकि ख़बर आबादी के उसी तक़रीबन एक तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करने लगी। इस तरह लोकतन्त्र के प्रहरी की उसकी भूमिका गौण हो गयी।
दुखद पहलू यह है कि इस दौरान मीडिया पर राजनीतिकों और कारपोरेट जगत के स्वार्थी गठजोड़ में सहयोगी होने के आरोप लगने लगे हैं। इस वजह से भी उसने अपनी विश्वसनीयता काफ़ी हद तक खोई है। इन्हीं तमाम हालात के मद्देनज़र पत्रकारिता से कुछ ज़रूरी चीज़ों का, जिनमें उसके सरोकार प्रमुख हैं, सिरे से गायब हो जाना इस पुस्तक की चिन्ता के केन्द्र में है। पत्रकारों के रोज़मर्रा के कामकाज पर विचार करते हुए इस बात पर भी ग़ौर किया गया है कि इस पेशे में भूल-चूक कहाँ और क्यों हो रही है। मरती हुई ख़बर को बचाने और पत्रकारिता की घटती विश्वसनीयता फिर से क़ायम करने को इस पुस्तक में मौजूदा दौर की प्रमुख चुनौती के रूप में देखा गया है।