Pattal Ko Thali Ki Maryada
गुस्ताव जैनुक से बातचीत के क्रम में काफ़्का ने कहा है कि सच्ची कला समय का दर्पण होती है...एक ऐसी घड़ी है जो समय से तेज़ चलती है। यानी कि इसके बरअक्स कुछ कलाएँ ऐसी भी होती हैं जो सुस्त होती हैं और समय से काफ़ी पीछे होती हैं। त्रिलोचन के समय में ऐसी भी काव्य-कला थी जो यथास्थितिवादी थी और प्रयोग के नाम पर नग्नता का प्रदर्शन करती थी। इसके ही समान्तर एक ऐसी भी धारा थी जो प्रगति के नाम पर मार्क्सवाद का कीर्तन कर रही थी। इन दोनों काव्यधाराओं की शक्ति और सीमाओं को पहचान कर अपने जीवन-विवेक से काव्य-विवेक का आविष्कार त्रिलोचन ने किया तथा अपनी सर्जनशीलता के लिए नयी ज़मीन और ज़मीर की तलाश की। प्रगति, प्रयोग की आधुनिकता की आँधी में तथा उपेक्षा एवं तिरस्कार के आवर्त में अपनी अर्जित भावभूमि को सुरक्षित रख पाना त्रिलोचन के ही वश की बात थी।