Prachin Vyangya Natak
प्राचीन व्यंग्य नाटक -
लगभग हर संस्कृत नाटक में विदूषक एक अनिवार्य पात्र है जो गम्भीर से गम्भीर स्थितियों के बीच भी अपने ढंग से हास-परिहास पैदा करता है। मृच्छकटिक में, जुआरियों के विनोदपूर्ण प्रसंग के अलावा, शकार-जैसा अद्भुत पात्र है जो अपनी बेमिसाल मूर्खताओं के कारण लगातार हँसाता है। साथ ही उसका क्रूर और दुष्टता-भरा आचरण सत्ता के समीप रहनेवाले व्यक्तियों की निरंकुशता पर तीख़ा व्यंग्य भी है। अभिज्ञान शाकुन्तल में धीवर को मछली के पेट से राजा की अँगूठी मिलने के प्रसंग में हास्य तो है ही, राजपुरुषों के भ्रष्टाचार पर व्यंग्य भी है। भास के भी कई नाटकों में हास्य-व्यंग्य की रोचक स्थितियाँ या व्यंजनाएँ मिलती हैं।
इसके अलावा संस्कृत रंग-परम्परा में हास्य-व्यंग्य का एक स्वतन्त्र, अनूठा प्रकार ही है-प्रहसन, जिसका केन्द्रीय रस या भाव ही हास्य का है। निस्सन्देह, इसमें शुद्ध हास्य की बजाय व्यंग्य पर आग्रह है और वह व्यंग्य अधिकतर समाज के एक विशेष वर्ग पर, विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के भ्रष्ट, पाखंडी साधुओं और उनके शिष्यों पर, होता है। रोचक बात यह है कि प्रहसनों में कुछ ब्राह्मणों को छोड़कर समाज के उच्च वर्गों के लोग नहीं हैं। फिर भी उनसे उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की ऐसी सटीक और विनोदपूर्ण झाँकी मिलती है जो नाटकीय स्थितियों से भरपूर तो है ही, आज भी प्रासंगिक है।