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Vani Prakashan

Praja Ka Amurtan

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प्रजा का अमूर्तन - 
प्रभाकर श्रोत्रिय द्वारा लिखे गये 'नया ज्ञानोदय' के सम्पादकीय आलेखों का यह संकलन सम्पादन के क्रम में लिखी गयी औपचारिक टिप्पणियों से कहीं अधिक लेखक की बेचैनियों की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। अपने सम्पादकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए श्रोत्रिय जी ने अपनी सजग दृष्टि और तरल संवेदना के मेल से मर्मस्पर्शी गद्य रचा है, जैसा कि उन्होंने ख़ुद कहा है, "समय के गतिशील प्रश्नों, भयों, चिन्ताओं, घटनाओं, उपलब्धियों में से किसी सार्थक सामयिक विषय का चयन किया और उसे 'लेखक' को सौंप दिया। लेखक ने सूचना और इतिवृत्त से निकाल कर उसे रचना का घर दिया, जहाँ अन्तर्वृत्ति, चेतना, संवेद, सरोकार, सन्दर्भ, मनन, विश्लेषण, भाषा, शिल्प, रंग-छटाओं से उसे पोषण और शायद लावण्य भी मिला-यानी जो भी लेखक के घर में रचना के सम्भव उपादान और आत्मीय संसार था, वही सब सम्पादक ने पाठक को दिया।"
इस तरह ये सम्पादकीय सदैव अपने पाठकों के प्रति गहन आत्मीय संवेदना से उन्मुख रहे हैं, क्योंकि इनके लेखक के लिए अपने पाठक से संवाद करना उसकी पहली जरूरत रही है। वस्तुतः लेखक ने इन आलेखों को लिखते वक्त अपनी बौद्धिक प्रखरता और अभिज्ञता को पन्नों पर उतार देने भर को अपने दायित्व की पूर्ति नहीं माना है, बल्कि सम्प्रेषण की सामर्थ्य को रचना का जीवन मानकर पाठक के पक्ष का हमेशा ध्यान रखा है।
तमाम तरह के विषयों और प्रसंगों पर लिखते वक़्त भी लेखक ने जिसे हमेशा याद रखा, वह है साधारणजन। यह साधारणजन उसके लिए कसौटी की तरह है, जिसके सन्दर्भ में वह देश-दुनिया के तमाम उतार-चढ़ावों की पड़ताल करता है। लेखक का यह दृष्टिकोण ही इस संकलन का आधार है और यही इसकी प्रासंगिकता को भी सिद्ध करता है।

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9788181435446
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