Prakriti Aur Antahprakriti
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प्रकृति और अन्तःप्रकृति –
हमारे जीवन का स्वाभाविक समीकरण व सन्तुलन बदल गया है, बिगड़ गया है। प्रकृति के साथ हमारे मन का जो सम्बन्ध था, हमारी संस्कृति में जो रिश्ता था, वह आज के समय में ढीला होता जा रहा है। हमारे सम्बन्ध प्रकृतिपरक थे, पारिवारिक थे, उसमें प्रेम की गर्मी थी, मन की तरलता थी, भावों की भंगिमा थी। इसलिए ही वे सम्बन्ध ठोस आधार लिए हुए थे। कुमार वीरेन्द्र की कविता इसी बात की याद दिलाती है। कविता कहती है कि 'हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, काका-काकी यहाँ तक कि माँ-बाप ने ही बताया है कि चाँद मामा है, नदी माँ है, बिल्ली मौसी है, कनखोज़र भाई है।' इस प्रकार के भावात्मक सम्बन्धों को बचाने की ज़रूरत है। सबके नष्ट होते जाने के परिसर में उदय प्रकाश की कविता बचाने की बात करती है-""बचाना चाहिए तो बचाना चाहिए/गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहरों में हवा/पेड़ों में घोंसले, अख़बारों में सच्चाई/राजनीति में सिद्धान्त, प्रशासन में मनुष्यता/दाल में हल्दी।"" कवि मन का सार इतना है कि मानव अपनी ‘प्रकृति और अन्तःप्रकृति’ को बचा, जीवन को सुन्दर बनायें। मानव अकेले में जीवन का श्रृंगार नहीं कर सकता है। जिस प्रकार विभिन्न सुरों से, वाद्य-यन्त्रों के नाद के सम्यक मिलन से संगीत सुरभित होता है, उसी प्रकार प्रकृति के वैभव की प्रचुरता में ही जीवन की आभा रहती है। कवित्व अपने समय का साक्षी अवश्य है। वह जीवन की प्रकट-अप्रकट सच्चाइयों का ज्वलन्त दस्तावेज़ है। उसमें समय के काले-सफ़ेद अनुभव अंकित होते हैं, जीवन के अभाव, विषमता का बयान होता है। इस बयान के साथ ही वह जीवन को बदरंग करने वाले सभी प्रकार के कुचक्रों की पोल खोल देता है, साथ ही संघर्ष का एक राजमार्ग प्रशस्त करता है।
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ISBN
9789355181480