Prarabdha
प्रारब्ध -
प्रस्तुत कृति आशापूर्णा देवी के निजी जीवन और दर्शन को प्रतिकृत और प्रतीकित करती है । सत्यवती (प्रथम प्रतिश्रुति) और सुवर्णलता के चरित्र की विशेषताएँ बार-बार उनकी कथा-कृतियों में अलग-अलग पात्रों में निरूपित हुई हैं और इस धारावाहिकता में जीवन और जगत् के प्रति लेखिका के प्रौढ़ दृष्टिकोण की बार-बार पुनरावृत्ति हुई है, और भी अधिक प्रभावी पैनेपन के साथ ।
नारी-केन्द्रित उपन्यासों में उठायी गयी समस्या का प्रश्न-बिन्दु अक्सर यही है कि हमारा समाज पुरुष-द्वारा निर्मित और पुरुष-शासित है। सृजन में अपनी श्रेष्ठ सहा भागिता के बावजूद समाज में नारी-पुरुष का समान मूल्यांकन नहीं होता । पुरुष की बड़ी-से-बड़ी कमज़ोरी समाज पचा लेता है लेकिन नारी को उसकी थोड़ी-सी चूक के लिए भी पुरुष समाज उसे कठोर दण्ड देता है; जबकि इसमें उसकी लिप्सा का अंश कहीं अधिक होता है। वास्तव में नारी अपने मूल अधिकारों से तो वंचित है, लेकिन सारे कर्त्तव्य और दायित्व उसके हिस्से मढ़ दिये गये हैं । आशापूर्णाजी का मानना है कि नारी का जीवन अवरोधों और वंचना में ही कट जाता है, जिसे उसकी तपस्या कहकर हमारा समाज गौरवान्वित होता है। इस विडम्बना और नारी जाति की असहायता को ही वाणी मिली है यशस्वी बांग्ला कथाकार के इस अनुपम मनोहारी उपन्यास में ।
सजग पाठकों के लिए प्रस्तुत है प्रारब्ध का यह नया संस्करण ।
Publication | Bharatiya Jnanpith |
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