Priprekshya Ko Sahi Karte Huye
परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए -
शिवदान सिंह चौहान उन आलोचकों में से हैं जो अपने समय के साहित्य की वास्तविक पहचान के लिए सक्रिय रहे हैं। प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख आलोचक शिवदान सिंह चौहान प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापकों में से हैं। उनके लेखन में प्रगतिशील आलोचना का क्रमिक इतिहास देखा जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक के आलोचनात्मक निबन्धों में प्रगतिवादी साहित्य और प्रगतिशीलता को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है। इस विश्लेषण में प्रगतिशील साहित्यिक प्रवृत्तियों को जाँचने के लिए मार्क्सवाद की सुचिन्तित वैज्ञानिक मानववादी दृष्टि पारम्परित आलोचना को झटका देती है।
प्रगतिशील विवेक सम्पन्न यह आलोचना प्रणाली इस अर्थ में रचनात्मक है कि वह प्रगतिवादी साहित्य का अर्थ और मर्म रचना को विखण्डित किये बिना उद्घाटित करती है।
शिवदान सिंह चौहान ने विचारधारा सम्पन्न साहित्य के मूल्य ही निर्धारित नहीं किये हैं बल्कि विचारधारा की भी गहरी पड़ताल सम्भव की है। इस प्रक्रिया में वह प्रगतिशील विमर्श के नये आस्वाद प्रस्तुत करते हैं। इनका वैशिष्ट्य इस अर्थ में है कि जड़ शास्त्रीय पूर्वाग्रहों, अभिनन्दन ग्रन्थों के अनुष्ठानपरक लेखों और भोंथरे हो चुके अकादमिक औज़ारों से हटकर शिवदान सिंह चौहान आलोचना को ऐसी जीवन्त बहस का रूप देते हैं जो पाठक से भी संवाद करती है।
इस किताब का विषय-क्षेत्र काफ़ी व्यापक है। भारतीय भाषाओं और बोलियों की शक्ति तथा सीमाएँ, काव्यशास्त्र के उद्भव और उसकी प्रासंगिकता, लेखकीय स्वातन्त्र्य और प्रतिबद्धता, कहानी-कविता की भाषा से लेकर साहित्यिक आन्दोलनों के वैचारिक पक्ष की समीक्षा, साहित्यिक अनुवाद की समस्या जैसे विषयों का अपना महत्त्व है। भारतीयता की प्रगतिशील पहचान तथा प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, आचार्य शुक्ल, रेणु, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय सरीखे रचनाकारों के सृजनात्मक योगदान का गहन विवेचन भी इस किताब की उपलब्धि है।