Raat-Din Jagayen Aakashgangayen

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आपके हाथों में आयी यह कविता किताब हमें शायद असमंजस में घेर ले अगर हम इसमें अद्वितीयता के हाशियों में अतुलनीयता तथा अकल्पनीयता की अन्वीक्षा की इतर वृत्ति पर गौर नहीं करें... क्योंकि.... क्योंकि इसमें रूपकात्मक (मेटॉफरिकल) भाषा के बजाय अधि (मेटा...) भाषा की प्रवृत्ति भी संलक्षित होती है। क्योंकि इसमें प्रेम प्रायः नहीं है, रूमानी सौन्दर्य नहीं हैं, छायावादी प्रकृति भी नहीं है। क्योंकि यह छायावाद-प्रगतिवाद-नयी कविता से भी काफ़ी इतर आगे की प्रतीत होती है। इसमें समकालीन लोक (फोक), शहरी (अर्बन) चुनौतियाँ हैं। इसमें विलक्षण संदर्श तथा स्वप्नाभास हैं जो वर्चुअल सत्य को नंगा करते हैं।

इसमें मौजूद यथार्थता में विसंगति (एब्सडिटी) तथा विप्लवी (रेडिकल) दशाएँ घुलमिल रही हैं। अतः सत्य की भी नग्नता का आभास 'शब्द-धुरी' से विकीर्ण हो रहा है।

शब्द तो सीढ़ियाँ होते हैं (बट्रेंड रसेल के अगमड़े शिष्य विट्गेंस्टाइन)। इन कविताओं में भी पुरानी-पिछड़ी सीढ़ियाँ हटा देने पर... वे गिर कर बिखरने के बजाय फिर नये पैटर्न, अनजाने अनुभव, विलक्षण कार्यवाही को हासिल करने के लक्ष्य पर चल पड़ते हैं... अनथके, निडर, आक्रोशित !
इन कविताओं के शब्दार्थ भी बिम्ब, रूपक, प्रतीक से आगे उत्तीर्ण होकर साहचर्य (एसोसियेशन) के क्षेत्र में आ जाते हैं। इतस्ततः इसलिए अपनी साधारणता तथा धारावाहिकता का उल्लंघन करते हुए चमत्कार और विद्रूपता की प्रोक्ति का संदर्श कराते हैं।

इसलिए शब्द तथा साहचर्य की इस मौलिकता के अधिग्रहण को रेखांकित किया जाना चाहिए। इससे कई अज्ञात तथा अजनबी लक्ष्यों की खोज मिलती है। इसलिए कविताओं में किंचित मामूली (रस्टिक) संज्ञान में जो जटिलता तथा देहाती अनगढ़ता है वह देश, समाज, काल, इतिहास की जड़ों की वर्तमान खोज तथा उनकी सही पहचान कराती है। वह सतह के ग्रामपन और शहरीपन को अक्खड़ अधिभाषा के द्वारा विलक्षण एवं असाधारण भी बनाती है; लेकिन सहज सम्प्रेषण (कम्युनिकेशन) चालू रखती है ।

अतएव हमारा विश्वास पुष्ट करती है कि सुबह एक बार कई बार, बार-बार होती रहेगी।

इसको स्वीकार करके हम इस संग्रह के विप्लवीकरण तथा लोक शहरी आधुनिक जड़ों को पहचानने और आत्मसात करने की मनोदशा बनाने बढ़ते हैं....

ISBN
9789388434317
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