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नक्सल आन्दोलन की निरर्थक पड़ने की व्यथा-कथा बयान करता है। नक्सल आन्दोलन छोड़कर, चन्द नौजवान दुनिया बदलने निकल पड़ते हैं। उन सबको हत्या के झूठे आरोप में जेल में ढूंस दिया जाता है। 18 वर्ष बाद, जब वे लोग जेल से रिहा होकर गाँव लौटते हैं, तब तक नक्सल आन्दोलन की जगह, पुलिस के मुखबिर ही, अब गाँव के मस्तान, धनी, क्षमताशील और सर्वेसर्वा नज़र आते हैं। उन लोगों के पैरों तले ज़मीन प्रदान करते हुए, गाँव का एक संवेदनशील अधेड़ इन्सान, अपनी बन्द प्रेस उन लोगों के हवाले कर देता है। मगर हद तो तब होती है जब उस प्रेस को भी आग के हवाले कर दिया जाता है। कई साथी मारे जाते हैं। ऐसे में कथा-नायक, सीधे गाँव के उस मस्तान के घर पहुँचता है और उसका क़त्ल कर देता है। समाज में फैली नाइन्साफ़ी, अत्याचार और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़, वह चरम क़दम उठाता है। बिना कोई हत्या किये, वह 18 सालों की जेल की सज़ा झेल चुका था। अब सचमुच हत्या करके आत्मसमर्पण कर देता है। नक्सल आन्दोलन, साहसिकता, बिखराव और बेनिशान होने की त्रासदी झेलनेवाले नौजवानों की कथा है। विविध क्षेत्रों की अलग-अलग तस्वीर पेश करती हुई, महाश्वेता की सशक्त लेखनी, लेखन-कर्म की प्रतिबद्धता को उजागर करती है।