Ritivigyan
पश्चिम में प्रायः 'लिंग्वो स्टाइलिस्टिक' अध्ययन के अन्तर्गत लेखक-विशेष की शैली के अध्ययन अभी बहुत हाल तक किये जाते रहे हैं, किन्तु इनमें सर्वमान्य वस्तुनिष्ठ पद्धति नहीं अपनायी जाती रही है और प्रायः ये अध्ययन अध्ययनकर्ता की अपनी रुझान से प्रभावित रहे हैं या अध्येय लेखक की व्यक्तिगत विशिष्टताओं से जिसके कारण किसी वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार सर्वग्राह्य प्रतिपादन सम्भव नहीं हो पाया है। वस्तुतः व्यक्ति की शैली को समझने से पूर्व भी यह आवश्यक है कि रीतिविज्ञान के विभिन्न उद्देश्यों और प्रकारों की सीमाएँ पहले निर्धारित की जाएँ ।
इस पुस्तक में कोशिश यह की गयी है कि प्राचीन प्रकार की व्याख्या पद्धति को आधुनिक सन्दर्भ की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए बिना कोई पारिभाषिक नाम दिये अर्थ-ग्रहण का एक मार्ग निर्धारण करने में उपयोजित किया जाये और इसको प्रामाणिक एवं तर्कबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाये ।