Rustam Ki Kavitayen
क्या मनुष्य के होने में ही उसके विरह का वास है ? शायद यही कारण हो कि प्रेम की गहन अनुभूति के क्षणों में हमें विरह का अनुभव होना शुरू हो जाता है। मानो प्रेम उसे पलभर को दृश्य बना देता हो । मानो प्रेम की चादर के अस्तित्व पर फैलते ही अस्तित्व में कहीं गहरे विद्यमान विरह की छाप उस पर अनायास ही उभर आती हो । रुस्तम की कविताओं का रास्ता यहीं से फूटता है । वे प्रेम की झीनी चादर की तरह सहृदय के मन पर फैलकर उसमें कहीं गहरे विद्यमान विरह के भाव को सतह पर खींच लाती हैं। और उसके विषाद से स्वयं रंग जाती हैं। इन कविताओं से ढँक चुका सहृदय का मन जब अपने ही भीतर झाँकता है तो उसे वहाँ अपना निपट अकेलापन, और अवसाद समूची गरिमा में जगमगाता जान पड़ता है । ये मन की धरती पर घास की तरह फैलती कविताएँ हैं जो अपने पढ़े जाने के वर्षों बाद तक शनैः शनैः बढ़ती रहती हमें अपने और अपने आस-पास के अकेलेपन और दुःख को समझने के लिए गुपचुप तैयार करती हुईं। उनकी इस इतनी अधिक सहज वृति को देखकर इच्छा होती है कि इन कविताओं को 'लगभग प्राकृतिक कृति' कहकर पुकारूँ : भाषा की शिला पर जीवाष्म की तरह बनती रचनाएँ ! इन कविताओं की एक अन्य विलक्षणता इनमें पुरुष की छवि को उसके 'शक्ति-सम्पन्न' चौखटे से मुक्तकर उसे दोबारा उसकी सहज भंगुरता में प्रतिष्ठित करना है। इन कविताओं का पुरुष स्त्री के बरअक्स नहीं, उसकी निरन्तरता में आकार लेता है। संयोग से यह वह पुरुष नहीं है जिसके विरोध में स्त्रीवादी लेखन को रखा जा सके। जैसे भरतमुनि के नाटक दर्शक से यह अपेक्षा करते हैं कि वह प्रेक्षागृह में जाते हुए काल सम्बन्धी अपनी तमाम पूर्वधारणाओं को तजता जायेगा तभी वह नाटक देखने का अधिकारी होगा, उसी तरह रुस्तम की कविताओं में प्रवेश करते हुए पाठक को अपनी पुरुष-सम्बन्धी अनेक पूर्वधारणाओं को तजना होगा तभी वह उनका रसास्वादन कर सकेगा। तभी वह अस्तित्व की उस भंगुरता से साक्षात् कर सकेगा जो स्त्री और पुरुष दोनो में ही समान भाव से स्पन्दित होती रहती है।
- उदयन वाजपेयी