Sadi Ke Prashna
सदी के प्रश्न -
इक्कीसवीं सदी में सम्भवतः जीवन का कोई कोना नहीं है जो विज्ञान अथवा टेक्नॉलॉजी के स्पर्श से अछूता रह गया हो, जहाँ तकनीकी उपलब्धियों के दौर से चमत्कृत होते भी हममें से अधिकांश को एक ख़ौफ़-सा भी महसूस होता होगा। यह सारा विकास किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आख़िर कहाँ ले जायेगी? हमारे बच्चे क्या सचमुच हमसे अधिक सुखों और समृद्ध जीवन बिता पायेंगे? उपभोक्तावाद और सूचना क्रान्ति की इस अन्धी दौड़ में कहाँ हमारी पारम्परिक समझ की पुरानी गठरी तो हमसे पीछे नहीं छूट जा रही? वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के चमकदार नारों के पीछे का मानवीय सत्य क्या है? क्या इनके ज़रिये सचमुच इस दुनिया की बदहाली दूर हो सकेगी? सदी के ये प्रश्न शायद हमारे वक़्त के सबसे ज़रूरी और अहम सवाल हैं। लेकिन हमारे समय की विडम्बना है कि तकनीकी विकास के औचित्य एवं उसके सांस्कृतिक/नैतिक पक्ष को विमर्श का विषय बनाने की रचनात्मक साहसिकता हमें अपने साहित्य में कहीं दिखाई नहीं देता। सशक्त गद्यकार एवं तकनीकी जगत के जाने-माने विशेषज्ञ जितेन्द्र भाटिया इस पुस्तक के ज़रिये पहली बार विज्ञान की पक्षधरता एवं उसकी सामाजिक सांस्कृतिक भूमिका को लेकर वे सारे असुविधाजनक और विचारोतेजक यक्ष प्रश्न उठा रहे हैं, लेकिन जिनके उत्तर तलाशे बग़ैर इस यान्त्रिक सभ्यता को पत्थरों का संसार बनने से बचाना शायद असम्भव होगा। विचार के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने वाली ज्ञानपीठ की एक नयी प्रस्तुति।