Sanskriti Aur Samvedana

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"संस्कृति और संवेदना - भारतीय चिन्तन में परम्परा और आधुनिकता को लेकर बहुत द्वन्द्व नहीं रहा है। प्राचीनता को सदैव सर्वोत्तम मानने और नवीनता को उपेक्षित करने की परिपाटी हमारे यहाँ नहीं रही है बल्कि इन दोनों को समन्वय, सामंजस्य और अन्तरण की व्यवस्था में साधने की कोशिश की जाती रही है। यही कारण है कि हमारी संस्कृति बाह्य आघातों से न कभी टूटी और न कभी हारी बल्कि अपने अनुकूलन- गुण के कारण विभिन्न परिस्थितियों में अक्षुण्ण बनी रही। समय के प्रवाह में परिस्थितियाँ बदलीं किन्तु मूल स्वरूप कभी विनष्ट नहीं हुआ। आज बाज़ार ने हमारे घरों में, घुसपैठ द्वारा हमारी नियति और नीति को अर्थकेन्द्रित कर दिया है। हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों की दुनिया बदल दी है। अर्थार्जन और अर्थ दोहन में व्यस्त आज की पीढ़ी के पास मूल्यों के संरक्षण का उत्साह नहीं रह गया है। धनलोलुपता अथवा धन की अधिकता ने समाज का चेहरा और चरित्र बदलकर रख दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति की चुम्बकीय शक्ति इतनी प्रबल है कि हमारा मन-मस्तिष्क उसी की गिरफ़्त में है । दर्पण में झिलमिलाते बिम्ब को वास्तविक मान उसकी ग्राह्यता के लिए हमें किसी भी हद तक जाना स्वीकार्य है । हम वह सब कुछ प्राप्त करने के लिए आतुर और लालायित हैं जो हमारे अपने जीवन के यथार्थ से कोसों दूर है। ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि हम साहित्य, कला, अध्यात्म, दर्शन तथा उन सभी मूल्य तत्त्वों का समाकलन करें जिनसे हमारी संस्कृति की संरक्षा को ऊर्जा मिलती हो। उन आसन्न संकटों से सचेत एवं सावधान हों जो आत्मीयता, बन्धुता, स्नेह, मर्यादा, आदर्श और सम्बन्धों की उष्णता पर गाज गिराने के लिए सचेष्ट हैं। आज, सांस्कृतिक प्रभुत्ववाद के ख़तरों से निपटना भी जरूरी हो गया है क्योंकि संस्कृतियों की विविधता को ध्वस्त कर उन्हें समरूप बनाने की साज़िशों हो रही हैं। बहुराष्ट्रीय विज्ञापन उद्योग नवता के नाम पर परम्परागत जीवन-शैली को निर्मूल करने के अनेक उपायों पर कार्य कर रहा है। सांस्कृतिक प्रभुत्व, सांस्कृतिक समरूपता, सांस्कृतिक ध्रुवीकरण, सांस्कृतिक संकरण जैसी समस्याएँ सिर उठा रही हैं। इनके माया जाल से मुक्ति के लिए अपने स्वत्व और सांस्कृतिक विरासत का ज्ञान और संरक्षण आवश्यक है। - इसी पुस्तक से "
ISBN
9789362875327
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