Saundarya Shastriya Sameeksha
सौन्दर्यशास्त्रीय समीक्षा -
दरज काव्य-साहित्य की आलोचना के तीन प्रधान आधार-तत्त्व हं-रस, मानवीय संवेदना और प्रगतिशीलता। शेष सब बिन्दु किसी न किसी रूप में इन्हीं में समाविष्ट हो जाते हैं। भारतीय आचार्यों ने सौन्दर्य को रस के अन्तर्गत मान लिया है। रसानुभूति लौकिक स्तर से अलौकिक आध्यात्मिक स्तर पर 'रसो वै सः' में परिणत हो जाती है। इस तरह वह ब्रह्मानन्द के समकक्ष हो जाती है। काव्य-साहित्य के सन्दर्भ में, रस-मीमांसा में या स्वतन्त्र रूप में सौन्दर्य तत्त्व पर विस्तार के साथ विवेचन नहीं हुआ है। लेकिन भारत के दार्शनिक चिन्तन के सूक्ष्म अनुशीलन से पता चलता है कि 'ब्रह्मन' को अनन्त प्रभामंडल से परिवेष्टित सौन्दर्यमय भी कहा गया है। पाश्चात्य दर्शन, काव्य और आलोचना में इस सौन्दर्यतत्त्व का विस्तृत विवेचन किया गया है। छायावादी युग में पहली बार काव्य और आलोचना में सौन्दर्य की चर्चा आरम्भ हुई है। प्रस्तुत कवि-समीक्षा में इस सौन्दर्य को आलोचना का प्रधान चौथा तत्त्व मानकर विचार-विमर्श हुआ है।
सृजन-प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी काव्य के विकास के चार चरण हैं-रस, भावना, संवेदन और चिन्तन-प्रधान। अन्तिम दोनों प्रकार की कविताओं में रसानुभूति के सम्बन्ध में समीक्षकों में कुछ मतभेद है। शताब्दियों पहले पंडितराज जगन्नाथ ने 'रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द' को काव्य कहकर इस समस्या का समाधान किया है। रमणीयता या सौन्दर्य की अनुभूति होने पर हर रचना को काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। उसके अभाव में रचना, कुन्तक के शब्दों में तथ्यात्मक 'वार्ता' मात्र है। सृजन की मूल प्रेरणा सौन्दर्य है जो जीवन की मूल्य-व्यवस्था की गति-विधि, उन्नति-अवनति तथा विकास-परिवर्तन के अनुसार बदलता रहता है। आलोच्य कवियों या काव्यों के सूक्ष्म अनुशीलन से उसके विकास परिवर्तन का आभास मिल जाता है।
आलोचना के किसी एक तत्त्व या दृष्टिकोण को लेकर कवि और कृतित्व के साथ न्याय नहीं हो सकता जब तक सृजन-प्रक्रिया के सभी पहलुओं और परिस्थितियों को उसमें समेट न लें। प्रस्तुत समीक्षा में सौन्दर्य को केन्द्र में रखकर रचनात्मक समस्या के पक्षों को उससे सम्बद्ध करके कवियों की सौन्दर्य-चेतना के विश्लेषण, आख्यान और मूल्यांकन का प्रयत्न किया गया है।