Shrilal Shukl : Vyangya Ke Vividh Aayam
श्रीलाल शुक्ल जी हिन्दी के उन अप्रतिम व्यंग्य शिल्पियों में से एक हैं, जिनके समूचे लेखन में व्यंग्यात्मकता धड़कन की तरह मौजूद है। उनकी बौद्धिक सघनता, वैचारिक ईमानदारी, संवेदनात्मक गहनता और प्रतिरोध की बेधक-मारक क्षमता उनके उपन्यासों- कहानियों एवं व्यंग्य निबन्धों में सहज ही दिखायी देती है। डॉ. अर्चना दुबे ने उनके समग्र साहित्य को खँगालते हुए उसमें व्यंग्य के विविध आयामों को बड़े ही श्रमपूर्वक विवेचित किया है। व्यंग्य वर्तमान रचनाधर्मिता का अनिवार्य अंग बन गया है। जब कोई सजग रचनाकार परिवेशगत विसंगतियों से अपनी असहमति व्यक्त करता हैं तो उसकी अभिव्यक्ति-शैली व्यंग्यात्मक हो ही जाती है। फिर आज का परिवेश तो इतनी विद्रूपताओं और विरोधाभासों से भरा है कि उनका अभिधात्मक उल्लेख भी व्यंग्य बनकर उभर आता है। इसलिए कहा जाता है कि प्रतिरोध का साहित्य आवश्यक रूप से व्यंग्यात्मक भले ही न हो लेकिन व्यंग्य-साहित्य आवश्यक रूप से प्रतिरोधात्मक होता है।
प्रस्तुत कृति में डॉ. अर्चना दुबे का यही प्रयास रहा है कि समाज की जिन विद्रूपताओं तक शुक्ल जी की निगाह नहीं पहुँची है, उनका सम्यक् विवेचन करते हुए उनकी व्यंग्य दृष्टि को मूल्यांकित किया जाये। इस प्रकार वे सफल भी हैं। इस व्यंग्य-लेखन की परम्परा में शुक्ल जी के अवदान का सही मूल्यांकन करते हुए उन्होंने बदलती। सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों, मूल्यों के विघटन, नारी जीवन की विसंगतियाँ, पूँजी और अपराध जगत के सम्बन्धों आदि पर शुक्ल जी की धारणाओं का बेबाक़ी से विवेचन किया है। राजनीतिक, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, अफ़सरशाही तथा सत्ता की राजनीति में दिन-प्रतिदिन हो रहे अवमूल्यन के कारण आज का जीवन बहुत अधिक प्रभावित हुआ है। डॉ. दुबे ने इन स्थितियों को भी शुक्ल जी के साहित्य के आधार पर बड़ी कुशलता से विवेचित किया है। धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा जगत् की विद्रूपताएँ भी इस विवेचन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इस रूप में यह कृति श्रीलाल शुक्ल के साहित्य की सजग एवं वस्तुपरक पड़ताल करती हुई उनकी रचना-दृष्टि को समझने में उपयोगी सिद्ध हुई है।
-डॉ. सतीश पाण्डेय