Siddharth Kee Pravrajya

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निजी जीवन में वैभव और विलासिता युक्त जीवन के लिए हो रही अन्धी दौड़ और समाज में दबदबा कायम करने हेतु शक्ति प्रदर्शन के लिए शस्त्रों की होड़ से सम्भावित हिंसा और अनिश्चय के वातावरण में विक्रम सिंह जैसे संवेदनशील रचनाकार को बुद्ध के त्याग, सदाचार युक्त जीवन तथा लोक कल्याण के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित ‘मध्यम मार्ग' का स्मरण होना स्वाभाविक ही है। अपने लेखकीय दायित्व की पूर्ति के लिए उनके द्वारा अभिव्यक्ति की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा नाटक की कथावस्तु के माध्यम से बुद्ध की देशना को जन सामान्य तक पहुँचाने का प्रयास निश्चित रूप से श्लाघ्य है। भौतिकता की भागमभाग और हिंसा (युद्ध) की आशंका से उत्पन्न अनिश्चितता के वातावरण से ऊब चुके वक़्त ने सुनिश्चित भविष्य के लिए धूल खाती ‘पालि' पाण्डुलिपियों की जब धूल झाड़ी तो नैतिक रूप से अस्वस्थ हो चले समाज को स्वस्थ और दीर्घायु बनाने वाले बुद्ध के तमाम नुस्खे बिखर गये। बिखरे हुए बुद्ध के इन अनमोल नुस्खों को साहित्य, कला और दर्शन के माध्यम से लोक जीवन की आवोहवा में फिर से बिखेरने की आवश्यकता के दृष्टिगत त्रिपिटकों, जातक कथाओं और अवहट्ठकथाओं का विभिन्न भाषाओं में न सिर्फ अनुवाद हुआ बल्कि कविता, कहानी, नाटक आदि साहित्य की विभिन्न विधाओं की कथावस्तु के रूप में भी प्रस्तुत हुआ। बुद्ध के विचारों का इस रूप में प्रस्फुटन समय की आवश्यकता है। वक़्त की इसी नब्ज़ को पकड़ा है डॉ. विक्रम सिंह ने; इसी का परिणाम है उनका नाटक ‘सिद्धार्थ की प्रवृज्या' । इसमें प्रयुक्त संवाद की लोकशैली और संवादों के बीच में उदात्त दार्शनिक विचारों का प्रस्तुतीकरण नाटक की उपादेयता को प्रमाणित करता है।
ISBN
9789389563146
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