Sinhasan Khali Hai
“नदी गहरी थी, जल शान्त ।
.... जैसे ही हमने उसे नदी में फेंका...छपाक् की आवाज़ के साथ नदी के जल में हलचल मच गयी।... एक बार वह पानी में बिलकुल डूब गया। गोल लहरें दूर तक फैलकर सिमट आयीं । ...वह फिर छटपटाते हुए बाहर निकला ... गोल लहरें फैल गयीं। ...वह फिर पानी में डूबा। गोल लहरें फिर सिमट आई ।
कई बार वह पानी में डूबा - उतराया... कई बार गोल लहरें फैलीं और सिमटी....फिर जब वह अन्तिम बार डूबा तो गोल लहरें बिलकुल सिमट आयीं...उनके बीच एक केन्द्र बन गया। ... वह केन्द्र कुछ देर तक तेजी से नाचता रहा फिर आगे बढ़ गया और वह नास्तिक पानी के बाहर दुबारा नहीं निकल सका।
....लेकिन जितनी बार वह पानी से बाहर निकला, हर बार उसने यही कहा राजा झूठा है, मक्कार है, नास्तिक मैं नहीं, राजा है....
राजा, राजा बनते ही लुटेरा हो गया। ईश्वर के नाम पर उसने मेरी औरत को छीन लिया... ।”
हर युग ने, हर सभ्यता ने एक नया शाही जामा पहनकर मानवता को भटकाया है। न जाने कितने लोग आये और चले गये... नश्वरता के इस अनन्त चक्र का अवशेष रह गया, सत्ता का प्रतीक 'सिंहासन' जो आज भी प्रतीक्षा में आहत और पीड़ित जन समुदाय के काँपते हुए सुपात्र की विश्वास को सँजोये सुपात्र की खोज के लिए सिसक-सिसक कर प्रार्थना कर रहा है...एक सुपात्र की ... जो सिंहासन पर बैठकर सत्य, अहिंसा और न्याय की रक्षा कर सके। सुशील कुमार सिंह का बहुचर्चित राजनैतिक व्यंग्य नाटक 'सिंहासन खाली है'।