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Smriti Satta Bhavishyat Tatha Anya Shreshtha

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स्मृति सत्ता भविष्यत्  तथा अन्य श्रेष्ठ 
कवि के काव्य-विकास के सभी चरणों की परिणति, उनके चिन्तन की सभी धाराओं का संगम, हमारे राष्ट्रीय जीवन के त्रिकाल-गामी आयामों का आकलन, शैली-शिल्प की परिपक्वता और विविधता, सबका स्थायी प्रतिफलन इस कृति में हुआ है। कवि की दृष्टि ने यहाँ मुक्त इतिहास और मानव-भाग्य, व्यक्ति का एकाकीपन और समाज की सामूहिक चेतना, वर्तमान के प्ररिवेश की विच्छिन्नता और अतीत की अनवरतता आदि द्वन्द्वों को भविष्य के उन्नयन की आस्था में समाहृत किया है। जिस शीर्षक पर संग्रह आधारित है, उसके तीन शब्दों की लघुता में व्यक्ति और समष्टि के अतीत (स्मृति), वर्तमान (सत्ता) और भविष्य (भविष्यत्) का चित्रफलक प्रस्तुत किया गया है। कवि की जीवन-दृष्टि को जिस प्रतीक-कथा के माध्यम से यह कविता व्यक्त करती है, वह सन्दर्भ रवीन्द्रनाथ की एक रचना से लिया गया है। विवाह के मण्डप में सब तैयारियाँ हो चुकी हैं, अभ्यागत जा गये हैं; पान रचाये सजीली महिलाएँ उत्सव की तैयारी से प्रमुदित हैं; सारे सरंजाम के बीच वधू भी बनी-सँवरी लजायी हुई बैठी है-और, वर है कि आया ही नहीं, आ ही नहीं रहा। यहाँ वर प्रतीक है मनुष्य की 'सत्ता' का। आधुनिक जीवन में सभी कुछ तो है-ऊँची अट्टालिकाएँ, व्यापार-व्यवहार, बाबू, मुंशी और अफ़सर-किन्तु मनुष्य की सत्ता, उसकी अस्मिता इन सबके बीच से गायब है; अतः सब कुछ खोखला है। परिवेश के साथ सत्ता का बिलगाव ही हमारी संस्कृति का संकट है। इस संकट से मुक्ति का उपाय है कि हम अपनी स्मृति को जाग्रत् करें, अतीत के उस स्वर्णिम युग से इसे सम्पृक्त करें जब प्रकृति का समस्त परिवेश मानव-सत्ता के साथ एकात्म था। उस तादात्म्य के माध्यम से ही हमारा भविष्यत् निरापद और सार्थक होगा। हमारा खण्डित व्यक्तित्व अपनी प्रकृत-पूर्णता प्राप्त करेगा। चरम आस्था का यह आशावान् स्वर काव्य की उपलब्धि को रेखांकित करता है।

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Smriti Satta Bhavishyat Tatha Anya Shreshtha
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Bharatiya Jnanpith
Author: Vishnu Dey
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