Stree Purush Kuchh Punarvichar
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध जितने प्राकृतिक हैं, उतने ही सांस्कृतिक और सम्भवतः उससे भी ज़्यादा राजनीतिक इनके रचाव में जितना सुख है, उतनी ही पीड़ा इस द्वन्द्वात्मकता का उत्स कहाँ है? क्या यह दो अजनबियों का ऐसा नरक है जिसे स्वर्ग में बदला नहीं जा सकता? या, सुख नैसर्गिक है और दुख संस्कृति द्वारा प्रदत्त? स्त्री की दासता के तन्तु कहाँ से शुरू होते हैं और उसकी स्वाधीनता कहाँ तक जा सकती है? इस बारे में साहित्यिक साक्ष्य क्या कहते हैं? शीर्षस्थ पत्रकार एवं प्रखर विचारक राजकिशोर ने यहाँ एक ऐसे विषय पर क़लम चलायी है, जिस पर हिन्दी में बहुत कम लिखा गया है और जो लिखा गया है, उसमें से ज़्यादातर को निकृष्ट को कोटि में ही रखा जा सकता है। दिलचस्प यह है कि यह विवेचन जितना शास्त्रीय है उतना ही मार्मिक तथ्यों और आँकड़ों से मुठभेड़ करते हुए राजकिशोर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के उस धरातल की व्यापक छानबीन करते हैं जो दोनों की जीवन व्यवस्था के प्रायः सभी पहलुओं को स्पर्श करता है। पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी सुन्दर, प्रांजल और विचारवान भाषा, जो सत्य के उद्घाटन को रसमय बनाते हुए भी तार्किकता से अपना अटूट रिश्ता बनाये रखती है। यह भाषा दृष्टि की उस व्यापकता के कारण ही सम्भव हुई है जो स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की इस छानबीन को सभ्यता के विमर्श का एक आवश्यक अंग मानती है और उनकी पुनर्रचना के सुन्दर तथा उदात्त स्वप्न से परिचालित है।