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सुवर्णलता -

'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी की लेखनी से सृजित यह उपन्यास सुवर्णलता अपनी कथा-वस्तु और शैली-शिल्प में इतना अद्भुत है कि एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद इसे छोड़ पाना कठिन है जब तक सारा उपन्यास समाप्त नहीं कर लिया जाता, बल्कि समाप्त करने के बाद भी उपन्यास के पात्र - सुवर्णलता और सुवर्णलता के जीवन तथा परिवेश से सम्बद्ध पात्र - मन पर छाये रहते हैं, क्योंकि ये सब इतने जीते-जागते चरित्र हैं, इनके कार्यकलाप, मनोभाव, रहन-सहन, बातचीत सब-कुछ इतना सहज, स्वाभाविक है और मानव-मन के घात-प्रतिघात इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि परत-दर-परत रहस्य खुलते चले जाते हैं ।

निस्सन्देह इस उपन्यास में लेखिका का स्तर एक बहुआयामी विद्रोहिणी का स्वर है ।

सुवर्णलता आशापूर्णा के उन तीन उपन्यासों के मध्य की कड़ी है जिनके माध्यम से भारतीय समाज की नारी के एक शताब्दी का इतिहास अपने विकासक्रम में प्रस्तुत हुआ है। श्रृंखला की पहली कड़ी है प्रथम प्रतिश्रुति जिसका हिन्दी में एक लघु नाट्य रूपान्तर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है; उत्तरवर्ती तीसरी कड़ी बकुलकथा भी भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। शताब्दी के तीसरे चरण का परिवेश बकुलकथा में प्रस्तुत हुआ है। सम्भव नहीं कि आप यह उपन्यास सुवर्णलता पढ़ें और बकुलकथा पढ़ने के लिए आपका मन आग्रही न हो।

 

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