Teesra Rukh
तीसरा रुख़ -
समकालीन महत्त्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों के पैने विश्लेषण से युक्त यह पुस्तक नयी दृष्टि के उन्मेष की एक सार्थक परिणति है। सर्वथा नकार या अन्धस्वीकार जैसे धुवान्त निष्कर्षो से बचते हुए डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने विश्लेषण मूल्यांकन में सन्तुलन बनाये रखा है। यह सन्तुलन लीपा-पोती कदापि नहीं है वरन् इसमें तीख़ापन और मिठास बग़ैर घालमेल के एक साथ उपस्थित हैं। ऐसा सन्तुलन प्रखर मेधा और गहरी संवेदनशीलता के कारण सम्भव हो पाया है। पुस्तक में सत्तातन्त्र और मानवाधिकार के परस्पर जटिल सम्बन्धों का खुलासा हुआ है और हमारी सामाजिक संरचना में मौजूद संस्कृति की वर्चस्वशाली धारा के मूल चरित्र का उद्घाटन। सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की कोई भी गम्भीर चिन्ता 'मास कल्वर' की नोटिस लिए बिना सम्भव नहीं। हमारे समय में तो एकदम से नहीं। इस दृष्टि से माइकेल जैक्सन का पुस्तक में प्रस्तुत किया गया सांस्कृतिक पाठ ग़ौरतलब है। उदीयमान रचनाकारों की सर्जनशीलता का विश्वसनीय रेखांकन लेखक ने किया है और आलोचनात्मक सपाटबयानी में जिस ढंग का साहित्य-विमर्श विकसित हो रहा है उसकी भयावह परिणतियों के प्रति आगह भी। हिन्दी में व्याप्त अन्धश्रद्धा से बचता हुआ लेखक वरिष्ठ आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के रचना-आलोचना-विवेक और इतिहास-दृष्टि की तलस्पर्शी समीक्षा के साथ प्रगतिशील आन्दोलन की अर्थवत्ता और उसके अन्तर्विरोधों की गहरी छानबीन भी प्रस्तुत करता है। संवादधर्मी सर्जनात्मक आलोचना विकसित करने की अनिवार्य ज़रूरत पर बल देते हुए नामवर सिंह और नेमिचन्द्र जैन के बहाने आलोचना के स्वधर्म की चिन्ता पुस्तक में आद्यन्त मौजूद है। हिन्दी प्रदेश के वैचारिक संकट का गम्भीर, विचारोत्तेजक और सार्थक विश्लेषण इस पुस्तक में मिलेगा। लेखक के सरोकारों की व्यापकता इस किताब को सिर्फ़ साहित्य ही नहीं, व्यापक सांस्कृतिक आलोचना की किताब सिद्ध करती है। साहित्य और संस्कृति की प्रचलित आलोचना-दृष्टियों को प्रश्नबिद्ध करती यह पुस्तक 'तीसरा रुख' तराशने की एक ईमानदार कोशिश है जो पाठक को वैचारिक ऊर्जा, बौद्धिक ऊष्मा और गहरी संवेदनशीलता प्रदान करेगी।