Tulsidas
तुलसीदास -
मध्यकाल के घोर संकट और संक्रान्ति के बिन्दु पर खड़े होकर तुलसी ने अपनी पूरी परम्परा का मन्थन करके उदात्त मूल्यों का जो सार संग्रह किया, उसे 'रामचरितमानस' में 'राम' के माध्यम से साकार कर दिया। तुलसी के काव्य-नायक राम हैं। यह राम निर्गुण-निराकार भी हैं और सगुण साकार भी वे 'ब्रह्म' भी हैं और दशरथ के पुत्र भी। तुलसी की इस मान्यता का ठोस तार्किक आधार है। 'गुण' के अभाव में 'निर्गुण' की और 'साकार की अनुपस्थिति में 'निराकार' की अवधारणा असम्भव है। इसलिए परम-तत्त्व को मात्र निर्गुण मानना किसी भी दृष्टि से संगत नहीं है। तत्त्वतः वह निर्गुण और निराकार अवश्य है किन्तु जनता के जीवन में आशा का संचार करने के लिए काव्य-नायक का सगुण साकार होना आवश्यक है। उन्होंने अनुभव किया था कि जब सारी मर्यादाएँ टूट चुकी हों, उदर-पूर्ति का प्रश्न आचरण का प्रेरक और नियामक बन गया हो; दरिद्रता के दशानन ने सारी दुनिया को अपनी दाढ़ में ले लिया हो, पूरा समाज नाना प्रकार के धर्म-सम्प्रदायों, जातियों और उपासना-पद्धतियों में विभक्त होकर जर्जर हो गया हो, तब कोरे उपदेश और ६षड-दर्शन से काम नहीं चलेगा। घोर अशिक्षा, अभाव और मूल्य-हीनता के उस संकट-काल में तुलसी ने 'रामचरितमानस' की रचना की।
तुलसी के काव्य-विवेक का आकलन और महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। आज का युग भी, सांस्कृतिक संकट का युग है। आज भी समाज में भ्रष्टाचार और मूल्यहीनता चरम सीमा पर है। हम अपनी परम्परा से उच्छिन्न होने में गौरव का अनुभव करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में आज बहुत गहरे जाकर तुलसी-साहित्य के मूल्यांकन की आवश्यकता है। यह कार्य आगे आने वाले तुलसी के मर्मी विद्वान अवश्य करेंगे, इस विश्वास के साथ हम अपना यह विनम्र प्रयास तुलसी-प्रेमी जनता को सौंप रहे हैं। उनका स्वीकार ही हमारा सम्बल होगा।
- रामचन्द्र तिवारी