Tumne Kaha Tha

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"तुमने कहा था - नागार्जुन जनता के कवि हैं; उस जनता के जो वर्तमान व्यवस्था के दबावों को किसी भी स्तर पर झेल रही है। उसकी पीड़ा, उसकी आकांक्षाएँ और उसका गुस्सा ही नागार्जुन की काव्यानुभूति को ज़मीन देते हैं। यह बात उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच से जुड़ी कविताओं पर और भी ज़्यादा लागू होती है और तुमने कहा था उनकी ऐसी ही कविताओं का संग्रह है। रचनाकाल की दृष्टि से ये कविताएँ 1964-69 के बीच रची गयी हैं और वह समूचा समय अपनी तमाम विडम्बनाओं सहित इनमें प्रतिध्वनित होता है। अपने धारदार व्यंग्य के लिए इनमें से अनेक कविताएँ आज एक ऐतिहासिक महत्त्व रखती हैं। इनके माध्यम से नागार्जुन हमें सामाजिक-राजनीतिक असंगति, अन्तर्विरोध, विद्रूप और छद्म की तह तक ले जाते हैं। इस प्रक्रिया में एक ओर यदि वे हमें परिवर्तनकारी ऊर्जा से सम्पन्न करते हैं तो दूसरी ओर संवेदनात्मक स्तर पर सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की चेतना सौंपने का भी कार्य करते हैं। इस दृष्टि से न सिर्फ़ हिन्दी में, बल्कि समूची भारतीय कविता में नागार्जुन की कविताएँ एक मानदण्ड हैं। रचना पर पड़ने वाले समकालीन राजनीतिक दबावों को नागार्जुन ने सदा एक चुनौती की तरह स्वीकार किया है। इससे उनकी कविताओं में जिस व्यंग्य की सृष्टि हुई, उसे उनकी सुस्पष्ट वैचारिकता और गहरी संवेदना ने जीवन के गम्भीर आशयों से जोड़ने का कार्य किया। अपनी प्रकृति में अत्यन्त तीखी और आक्रामक नज़र आने वाली उनकी कविताएँ वस्तुतः एक मानवीय समाज-रचना की आकांक्षा से भरी हुई हैं। इस संग्रह में ऐसी कविताओं की पर्याप्त संख्या है। इसके अतिरिक्त यह संग्रह एक और कारण से भी संग्रहणीय है। इसमें कुछ ऐसी गीत-रचनाएँ भी हैं, जो नागार्जुन के रागात्मक प्रकृति-प्रेम की उत्कृष्ट शब्द-छवियों के रूप में रेखांकित की जाती हैं । "
ISBN
9789350009437
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