Vedstuti Dipika

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वेद भारतीय साहित्य के आदि ग्रंथ हैं। वेदों की रचना और रचनाकाल के बारे में चाहे जितने विवाद हो किंतु साहित्य के आदि ग्रंथों के रूप में वेदों की श्रेष्ठता निर्विवाद है। वेद संस्कृत साहित्य में शास्त्र, पुराण और उपनिषदों के प्रेरणा ग्रंथ हैं। वैदिक साहित्य के मीमांसकों के अनुसार वेदांत दर्शन से ही अन्य दर्शनों की उत्पत्ति हुई है। प्रस्तुत पुस्तक 'विदस्तुति दीपिका' में वेदांत दर्शन के परिप्रेक्ष्य में द्वैत-अद्वैत, सांख्य, योग आदि दर्शनों की सारगर्भित व्याख्या है। वेदा में कर्म और उपासना वर्णित है । अतः वेदांत के मीमांसकों का मत है। कि भक्ति, योग, उपासना आदि के लिए कर्म आवश्यक है क्यों कि वेदांत के प्रवर्तन में जीव जगत् के कल्याण का भाव भी निहित है । वेदांत के अनुसार यथार्थज्ञान से यदि हम अपने मूल स्वभाव के प्रत्ययों को प्राप्त कर लें तो आज की अनुचित और अज्ञानजन्य अवधारणाओं का अत हो सकता है।
 
 'वेदस्तुति दीपिका' में वेदांत दर्शन के स्वरूप को विस्तार से वर्णित किया गया है। भारतीय दर्शन जगत् के अंतर्गत शंकर के द्वैत-अद्वैत और मायावाद के संदर्भ में लेखक का कहना है- “कुछ लोगों के अनुसार ईश्वर द्वारा निर्मित माया के कारण हृदस्थ होकर भी उन्हें उसके दर्शन नहीं हो पाते। किंतु वेदांत की दृष्टि से यह कथन ही अयोग्य है कि ईश्वर नेमाया का निर्माण किया है। माया ईश्वर के द्वारा नहीं अपितु जीव के द्वारा निर्मित है। हमारी अनुचित कल्पना अथवा अज्ञान को 'माया' नाम दिया गया है।" वेदों के अध्ययन एव अर्थ अवगाहन के बारे में बताया गया है कि - "वेदांत का विचार करते समय षड्दर्शनों का विचार स्वाभावतः अनिवार्य है। परंतु इन दर्शनों के अध्ययन से बुद्धि को संदेह की बाधा नहीं होनी चाहिए। दर्शनों के द्वारा निश्चित सिद्धांतों का प्रयोग केवल उतनी ही मात्रा में किया जाना चाहिए जो कि अद्वैत ज्ञान को समझने के लिए सहायक हो । वेदांत के अतिरिक्त अन्य सभी शास्त्रो ने ज्ञाता के स्वरूप की अपेक्षा ज्ञेय के स्वरूप का ही विचार प्रमुख रूप से किया है, अतः वह विचार केवल सतही तौर पर किया गया है। इसलिए यह कहना पड़ता है कि उनके सिद्धांत सूक्ष्म न होकर स्थूल हैं।"
 
 वेद और शास्त्रों मे तीन भाषाओं का प्रयोग किया गया है – समाधि भाषा, लौकिक भाषा तथा परकीय भाषा । ईश्वर के साथ एक्य हो जाने के पश्चात जिस भाषा का आकलन होता है, वह समाधि भाषा है। वेदों का अर्थ समझने के लिए इसी भाषा की आवश्यकता होती है। शब्दों का लौकिक अर्थ जो भी होता है, उसी रूप में उसे प्रयुक्त करना लौकिक भाषा है।

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9788170553632
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