Veli Krisan Rukmani Ri (3 Volume Set)
स्वनामधन्य महाराज पृथ्वीराज के उज्ज्वल यशस्वी नाम से कौन भारतीय परिचित नहीं है? जिस समय मुगल-साम्राज्य के आतंक ने हिन्दू-सूर्य महाराणा प्रताप के अटल पराक्रम और निस्सीम धैर्य को भी विचलित करने में कुछ बाकी न रखा था, और जिस समय अकबर जैसे अतुल बलधारी और विचक्षण सम्राट से विरोध करने के परिणाम में महाराणा को अपने प्राण की रक्षा के लिए निस्सहाय वन-वन में भूखे-प्यासे रह कर भटकना पड़ा था और इस असह्य दुःख से पीड़ित होकर जब वे अकबर की अधीनता स्वीकार करने को विवश हो गये थे, उस समय यदि किसी महापुरुष की अन्तरात्मा ने अखण्ड ज्योतिर्मय ओज का प्रकाश करते हुए, महाराणा के हृदय की आत्मग्लानि एवं आन्तरिक म्लानता और दैन्य के आवरणरूपी अन्धकार को हटाने का प्रयत्न किया तो वह श्रेय महाराज पृथ्वीराज के उस इतिहास एवं साहित्य-प्रसिद्ध पत्र को ही है कि जिसके एक-एक अक्षर को पढ़ कर आज भी भारतवासी अपने हृदय में आशा, स्फूर्ति, उत्साह, स्वदेश-गौरव और आत्म-बल का दीपक जला सकते हैं। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि महाराज पृथ्वीराज का दैन्य उस समय महाराणा प्रताप की अपेक्षाकृत समुन्नत एवं स्वच्छन्द दशा से कहीं विशेष बढ़ा-चढ़ा था। न कोई इनके निज की सैन्य थी और न कोई प्रबल सहायक ही ऐसा था कि जिस पर विश्वास करके ये स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न कर सकते थे। ऐसी दशा में रहते हुए भी भारतीय स्वतन्त्रता का निशिदिन जाप करने वाले इन वीर-शिरोमणि क्षत्रियपुत्र के हृदय में भारतीय स्वतन्त्रता का ध्वज सम्हालने वाले एकमात्र अग्रेसर महाराणा प्रताप के धर्म-हठ के प्रति निस्सीम श्रद्धा और सहानुभूति थी, जो उनके द्वारा लिखे हुए उक्त पत्र से प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है। इन्हीं वीर महापुरुष महाराज पृथ्वीराज के काव्यात्मक व्यक्तित्व का स्वरूप निदर्शन करने एवं उनकी एक मुख्य काव्य-रचना का परिचयात्मक विवेचन कर रसिकों का हृदय तृप्त करने के हेतु हमारा यह विनम्र प्रयास है।