Vriksh Abhimanyu
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"नदी से बहुत कहता हूँ, चुप हो जा, मौन हो जा, तब्दील हो जा कुण्डों में, सरोवरों में, सजा ले अपने आसपास सँवारे हुए कुँज और खिला ले अपने जल में सुन्दर कमल और कुमुदिनी। क्यों बहती रहती है अनवरत कठोर पाषाणों के बीच, तपती धूप में? कहीं बर्फ़ में जमना पड़ता है तो कहीं निरन्तर फिसलना, क्यों नहीं देती विराम इस कंटक-भरी, पीड़ा-भरी यात्रा को ? सिर्फ तुझे अपना प्रवाह ही तो रोक लेना है, फिर तो तेरे सौन्दर्य की आरती उतारने जाने कितने देवपुरुष खड़े हैं। लेकिन वह नहीं मानती। वह तो बोलती रहती है, बहती रहती है, पत्थरों से टकराती है तो आह नहीं निकलती, संगीत के स्वर निकलते हैं, काँटों-भरे वन को जब पार करती है तब कराह नहीं निकलती, कोई गीत फूट जाया करते हैं। मुग्ध हो जाना पड़ता है नदी की इस भंगिमा पर।
घण्टों कलकल प्रवहमान नदी के किनारे बैठे रहो, उसके स्वर कभी एकरसता नहीं देंगे। उसका प्रवाह हर बार कुछ नयी बात करेगा, हर लहर कोई अद्भुत पंक्ति देगी। महानगरों के बीच रचे गए शब्द जाने क्यों बाँधते नहीं, शब्द तो वे बाँधते हैं जो नदी के बीच से उठाकर लाये गये हों। नदी के बीच से बटोरे गये शब्दों ने ही तो हमारी भाषा की अच्छी और प्राणवान पहचान रची है। इन्हीं शब्दों ने सरयू-तट पर रामायण रची और गऊघाट पर सूरसागर।
—इसी संग्रह से
★★★
पलाश तुम फिर फूल उठे। डालियाँ ढक गयीं, झुक गयीं चारों तरफ़। तुमने अपनी केशरिया आभा बिखेर दी, उत्सव मनने लगे तुम्हें खिलते देखकर। तुम फूले हो और सब वसन्त के रंग में डूबे हुए हैं। तुम फूले हो और प्रकृति केशर से नहा उठी है। तुम फूले हो और बाँसुरी बज उठी मन की। तुम फूले और तुम्हें देखकर नवोढ़ा लजा गयी, उसके कपोल भी तुम्हारी पाँखुरियों की तरह आरक्त हो उठे। तुम्हारे फूलते ही रस, रंग और गन्ध का सैलाब उमड़ पड़ता है। तुम ऋतुराज के राजा हो।
तुम्हें अच्छी तरह याद होगा, सदियों पहले एक चंचल नवयौवना ने तुम्हें ब्रज के आसपास फैले वन की पगडण्डियों से बीना था और तुम्हें कालिन्दी के पानी में भिगोकर, उस केशरिया जल से एक साँवरे को सिर से पाँव तक नहला दिया था। उस सलोने युवक ने भी यही किया और दोनों पलाशमय हो गये। यह घटना तो तुम्हें ज़रूर याद होगी क्योंकि तुम उसी पल से तो पलाश हुए, वरना उसके पहले तुम इसी पल की तलाश में भटका करते थे। फूलकर, झर जाया करते थे। समय यों ही फिसल जाया करता था। राधा ने तुम्हारे फिसलते पलों को अपनी पलकों पर रोक कर तुम्हें पलाश बना दिया। तुम चिर ऋणी हो राधा की दृष्टि के। यदि वह तुम पर नहीं पड़ती तो तुम अचीन्हे ही रह जाते। राधा तुम्हारी अस्मिता की पहचान है।
—इसी संग्रह से
"
ISBN
9789369444502