Jaan Di Jaye Ya Chay Ho Jaye

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"‘ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित कोंकणी लेखक दामोदर मावज़ो का ‘जान दी जाये या चाय हो जाये...’ उपन्यास असहिष्णु समय में प्रेम और मानवीयता के सार्वभौमिक मूल्यों की पैरवी करते हुए सामयिक यथार्थ की विविध परतों को बड़ी बारीकी तथा संवेदनशीलता के साथ खोलता है। संश्लिष्टताओं से भरे जीवन में क़दम क़दम पर मनुष्य को सही चुनाव के तनाव से गुज़रना पड़ता है। यह चुनाव ही आपके जीवन की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाता है। विपिन पोरोब भी ऐसे कई पलों से गुज़रता है। बन्द दरवाज़ें, बन्द खिड़कियों वाले घर में पले-बढ़े विपिन पोरोब के आत्मान्वेषण की यात्रा को यह उपन्यास बड़े प्रभावी ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। संकीर्ण व्यवस्था की जकड़ में फँसे अपने विद्यार्थी के हुनर को पहचान कर मार्टिन सर स्कूल में पढ़ते समय उसे किताबों की विलक्षण दुनिया से परिचित कराते हैं। बिना किसी दोस्त के बड़े हुए विपिन की सच्ची दोस्त यही किताबें बनती हैं। युवा विपिन के जीवन में चित्रा और फ़ातिमा स्नेह का स्रोत बनकर प्रवाहित होती हैं। लेकिन स्नेहहीन परिवार में पला-बढ़ा, बचपन से अकेलेपन को अपना साथी बना चुका विपिन क्या प्रेम की डोर को अपने हाथ में थाम लेता है? अपने भीतर की तमाम कमियों एवं सम्भावनाओं को पहचानकर क्या वह जीवन की चुनौतियों से भिड़ जाने का आत्मविश्वास अपने भीतर पैदा कर पाता है? "

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