Jangal Ke Jugnu

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जंगल के जुगनू  -  
'समाज सेवा एक यज्ञ है...ज़िन्दगी के अन्तिम छोर पर आकर तुम्हारे मन में कोई आश्वस्ति होनी चाहिए कि तुमने समाज के लिए कुछ किया है। यदि समाज ने तुम्हें कुछ दिया है तो तुमने भी अपने सामर्थ्य भर समाज को कुछ दिया है। उस क्षण और उसी आश्वस्ति के लिए आज का सदुपयोग करो ..अकेले में रह कर दुःखी होने, पश्चाताप करने या आँसू बहाने की अपेक्षा किसी की मुसीबतों को कम करने में सहभागी होना और उसके आँसू पोंछना कहीं बेहतर है।'
'जंगल के जुगनू' कथाकार द्वारा समाज में नारी की अस्मिता को रेखांकित और प्रतिष्ठित करने का सुविचारित प्रयास है। नारी-विमर्श के इस युग में तथा घर-परिवार, समाज और संस्थानों में व्याप्त अनेक विसंगतियों और विषमताओं के बीच उसके देख को प्रतिष्ठित करना इस कथा का अभिप्रेत है। नारी सामाजिक और संस्थागत परिवेश में ही उपेक्षा, व्यंग्य और कटुता नहीं भोगती, स्वयं अपने परिवार में भी अनेक अवसरों पर उसे प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। लेकिन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए अपनी रचनात्मक और संवेदनशील दृष्टि से वह अपने आड़े आये हुए सभी प्रकार के व्यवधानों से पार पाने में समर्थ हो सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि वह अपने निश्चय, संकल्प, उद्देश्य और जीवन मूल्यों पर स्थिर रहे।
इस कथा में लेखक का प्रयास यह रेखांकित करना भी रहा है कि विभिन्न वर्गों से आयी महिलाएँ किस प्रकार सामाजिक सरोकार से जुड़कर एक समान विचार भूमि पर आ खड़ी होती हैं और किस प्रकार से दो सर्वथा भिन्न और विपरीत परिस्थितियों और परिवेश में जीने के बावजूद मानवीय संवेदन और सामाजिक प्रतिबद्धता से सम्पृक्त होकर आत्यन्तिक रूप से आत्मीय बन जाती हैं।
 ......शब्द और शैली के धनी प्रगतिचेता कथाकार देवेश ठाकुर की लेखनी से एक और प्रासंगिक और सार्थक कृति - जंगल के जुगनू।

 

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