Kaatar Bela
कातर बेला -
व्यक्ति भले ही कितना भी यथार्थवादी और वस्तुपरक हो, संयोग भी उसके जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कभी-कभी इन संयोगों से पार पाना सम्भव नहीं हो पाता। 'कातर बेला' भी संयोगों से आपूरित ऐसी कथा है जो बार-बार व्यक्तिपरक जटिलताओं में उलझती हुई आगे बढ़ती है और व्यक्ति चरित्रों को उघाड़ती हुई एक अत्यन्त कातर-बिन्दु पर समाप्त हो जाती है।
इस कथा के सभी पात्र संयोगों की जटिलता से पीड़ित हैं। चाहे वह कथा नायिका सोनल हो, कथा नायक अमर हो, रूपल हो, राय बहादुर मेहता हों, काजल हो या दिलशाद खांडवाला ही क्यों न हो। सभी पात्र अपने-अपने अन्तर्द्वन्द्वों को लेकर जीते हैं और किसी न किसी स्तर पर परस्पर जुड़कर एक दूसरी की पीड़ा के कारक भी बन जाते हैं।
'कातर बेला' मूलतः स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की कहानी है। लेकिन अन्तर्धारा के रूप में यह जीवन और समाज के सरोकारों से भी अछूती नहीं है। इसमें संक्षेप में ही सही, राजनीतिक चर्चा का स्पर्श है, शिक्षा-संस्थाओं की दयनीय दशा पर कटाक्ष हैं और साथ ही निम्नमध्य वर्गीय जीवन की विवशताओं का उद्घाटन भी है। फिर भी मूल रूप से यह एक अकेली, बढ़ती उम्र की सम्पन्न नारी और एक अभावग्रस्त, सामान्य रूप से मध्यवर्गीय युवक के परस्पर परिचय और प्रणय की व्यथा-कथा ही है जो संयोग से परिस्थितिवश एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं और अन्ततः बिखर जाते हैं।
पूरी कथा सहज रूप से व्यक्ति मन की गाँठों को खोलते हुए विकसित होती है और अन्त में आकस्मिक रूप से एक वेदना बिन्दु पर पर्यवसित हो जाती है।
कथाकार देवेश ठाकुर द्वारा अत्यन्त आत्मीय और प्रयोगात्मक में बुनी गयी एक और कथा-कातर बेला।