Khajuraho Ki Pratidhvaniyan

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"खजुराहो की प्रतिध्वनियाँ - बचपन में संसार के नौ अचरजों की बात पढ़ा करते थे। ऐसे अचरजों में खजुराहो के मन्दिरों का अन्यतम बल्कि कदाचित् अद्वितीय स्थान है। खजुराहो दो नहीं है, न कभी दो होंगे। अजन्ता और एलोरा के समकक्ष भारतीय प्रतिभा के ये शिलित-प्रसून संसार के मूर्ति शिल्प में अपना सानी नहीं रखते। हमारी तो धारणा यही है कि भुवनेश्वर कोणार्क से निकट सम्बन्ध होने पर भी खजुराहो के शिल्प का स्थान उनसे उन्नीस नहीं है। सुन्दर को खण्ड-खण्ड करके देखना ही अश्लीलता है। अधूरी दृष्टि का हीनत्व बोध ही जुगुप्सा है। भारतीय साहित्य में अगर दुखान्त का स्थान इसलिए नहीं रहा कि अन्त में दुख देखना अधूरा देखना है और जीवन का सम्पूर्ण दर्शन दुखान्त हो ही नहीं सकता, तो यह भी सोचा जा सकता है कि भारतीय कला में अश्लीलता का स्थान भी इसलिए नहीं रहा कि भद्दे तक ही देखकर रुक जाना अधूरा देखना है और सम्पूर्ण दर्शन असुन्दर भी नहीं हो सकता और खजुराहो का मन्दिर समूह इसका प्रमाण है। अनेक स्थपतियों और शिल्पकारों की संयुक्त परिकल्पना और तन्त्र कौशल का यह सम्पुंजित परिणाम कुछ ऐसा एकीकृत सौष्ठव रखता है कि एक बार उसे सम्पूर्ण देख लेने पर श्लील-अश्लील के प्रश्न मानो सूखी निर्जीव पत्ती की भाँति मुरझा जाते हैं और निरर्थक हो जाते हैं। रह जाता है एक स्पन्दनशील, जीवन्त, अनिर्वचनीय आनन्द। खजुराहो वास्तव में एक शिलित काव्य है बल्कि काव्य और स्तोत्र का योग है। शालभंजिकाओं का शिलित रूप और भावभंगी देखकर 'नयन बिनु बानी' वाली बात ही याद आती है। आकारों के सम्पुंजन तलों और गोलाइयों के संगठन और रिक्त स्थानों को भरने में ऐसा तान्त्रिक कौशल अन्यत्र दुर्लभ है। स्त्री और बालक, पत्र लिखती हुई स्त्री, दर्पण लिये हुए स्त्री, इनके अतिरिक्त और बहुत से अभिप्राय खजुराहो में चित्रित हैं जो अन्यत्र भी पाये जाते हैं लेकिन कहीं भी वे खजुराहो के कृतित्व को नहीं छूते। मथुरा में उनमें शक्ति है पर एक अनगढ़पन है, खजुराहो का मँजाव नहीं है; भुवनेश्वर में उस मँजाव ने एक रूढ़ अलंकृति का रूप ले लिया है जो मूल कलात्मक प्रेरणा के ह्रास का लक्षण है। दो-एक मूर्तियाँ वहाँ ऐसी हैं जिनका कौशल बिल्कुल चकित कर देनेवाला है, केवल तन्त्र पर अधिकार के कारण नहीं, कल्पना की एक नयी और उस काल के लिए अप्रत्याशित दिशा के कारण, और इसलिए भी कि फिर इस दिशा में प्रगति या विकास के लक्षण भारतीय मूर्तिकला में नहीं मिलते। खजुराहो संसार का एक अचरज है। खजुराहो दो नहीं हैं, एक ही है। —'अज्ञेय' "

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