Kitne Kathghare
कितने कठघरे -
गहरी संवेदना में ऊभचूभ करता रजनी गुप्त का यह नया उपन्यास पाठकों को अस्थिर कर देता है। एक समय था जब चीज़ें स्याह और उजले परिप्रेक्ष्य में बेहिचक देखी जा सकती थी परन्तु अब नहीं। पाठक रत्ना से अलग होकर भी असम्पृक्त हो उठता है। कमाल है न। जैसा उपन्यासकार चाहता है, पाठक का चाहना भी वही हो उठता है। जेल के भीतर स्त्रियों की ज़िन्दगियाँ क्या हैं और क्यों हैं, ये दो अहम सवाल मुख्य धारा से टकराते हैं। इनके प्रति देखने का नज़रिया बदलने की उपन्यास में जो मशक़्क़त की गयी है, वह कथाकार को एक एक्टिविस्ट की भूमिका में लाकर खड़ा कर देता है। वांछा की उपस्थिति बड़ी सकारात्मक ऊर्जा देती है। उपन्यास में तेज़ी से घटती हुई घटनाएँ और बदलते दृश्य भी अपने में इतना पैनापन लिए हुए हैं कि उनकी धार पाठक के मस्तिष्क में अपनी स्मृति सुरक्षित कर लेती है। कथा के केन्द्र में रत्ना है, अविकसित मस्तिष्क वाले पति के पल्ले से बँधी। रत्ना जिस तरह की राह चुनती है, दरअसल वह ऐसी मृगमरीचिका है जहाँ हज़ारों रत्ना जैसी स्त्रियों को भरे पात्र होने का अहसास देकर छला जाता है। 'कितने कठघरे' रजनी गुप्त का उपन्यास तथाकथित अपराध को झेलती स्त्रियों के लिए लोकतन्त्र के भीतर के सत्य अलीगार्की (अत्पतन्त्र) पर उँगली रखता है। एक और उल्लेखनीय बात, इस उपन्यास में भारतीय जेलों में रहती बन्दिनियों की बदहाल दशा पर समाजशास्त्रीय नज़रिये से भी विश्लेषण किया गया है। हिन्दी जगत में इस नयी बीम पर आधृत यह उपन्यास विशाल पाठक वर्ग की अन्तस्वली तक पहुँचकर उनकी सोच व संवेदना संसार में नये सिरे से हलचल मचायेगा, ऐसा विश्वास है।
-शशिकला राय