Lok Manas Mein Ram Sanskriti (2 Volume Set Box)
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"किसी कवि से सुना था कि-
“किस रावण की भुजा उखाहूँ, किस लंका को आग लगाऊँ ।
घर-घर रावण, पग-पग लंका,
इतने राम कहाँ से लाऊँ ॥ ""
इस 'इतने राम कहाँ से लाऊँ' ने मेरे मन में हलचल मचा दी। फिर कहीं से इस पंक्ति का जवाब भी आया कि जहाँ से ये रावण आ रहे हैं, वहीं से राम भी आयेंगे। इस पंक्ति से मेरे मन में राम की एक अलग ही तस्वीर उभर कर आयी । मन्दिर के मूर्ति वाले राम की नहीं बल्कि यथार्थ के राम की तस्वीर ।
सन्त तुलसीदास के राम एक थे, दुष्टता का पर्याय रावण एक था। उस समय की रामायण बहुत सरल थी और आज की रामायण ? वर्तमान की रामायण उस रामायण से कहीं ज्यादा कठिन है, यही कवि की इस ""इतने राम कहाँ से लाऊँ"" में दिखाई पड़ता है। और सच यही है कि “राम की एक अवधि थी निश्चित, अपने दिवस अनिश्चित हैं।""
राम के वनवास का समय तय था और हमारा वनवास अनिश्चितकालीन है । अहल्या का उद्धार भी तय समय में हो गया, हम आज तक राम के चरण को तरस रहे हैं। कितनी शबरियाँ हाथों में बेर लेकर राम का रास्ता देखते-देखते पथरा - सी गयी हैं।
रावण तो हर गली-चौराहे पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं, परन्तु राम कहीं नजर नहीं आते। कितने विवश हो गये हैं हम लोग, जो मन्दिर में राम की पूजा करते हैं और चौराहों पर रावण को नमस्ते करते हैं। वर्तमान की इस व्यथा ने मेरे मन में यथार्थ के राम को स्थापित किया।
- पुस्तक से
"