Majrooh Sultanpuri
मजरूह सुल्तानपुरी -
'मजरूह' सुल्तानपुरी ने 55 वर्षों तक फ़िल्म-नगरी में गीतकार के रूप में बड़ी आन-बान के साथ क़दम जमाये रखा, यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। सन् 1945 से सन् 2000 तक उन्होंने लगभग साढ़े चार हज़ार गीत लिखे। सार्थक शायरी और संगीत के ज्ञान ने उनके गीतों को फ़िल्मों की सफलता की ज़तनत बना दिया था। 1998 में जब उन्हें 'दादा साहब फालके पुरस्कार' से सम्मानित किया गया, तो स्वयं 'मजरूह' ने ही नहीं, लोगों को महसूस हुआ कि 30-35 वर्ष पहले ही उन्हें यह पुरस्कार मिल जाना चाहिए था।
'मजरूह' की उर्दू शायरी को भी बड़ा मान-सम्मान मिला। ख़ुद वे अपनी साहित्यिक काव्य को अधिक अहमियत देते थे। उन्हें अपने साहित्यिक योगदान के लिए 'वली एवार्ड', 'ग़ालिब सम्मान' और 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से भी नवाज़ा गया। वे 'तरक्क़ी पसन्द तहरीक़' (प्रगतिशील लेखक संघ) के सशक्त स्तम्भ माने जाते हैं। वास्तव में उन्हें 'तरक्क़ी पसन्द तहरीक़ ग़ज़ल' का प्रवर्तक कहा जा सकता है। कुछ समीक्षक 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़' को इसका श्रेय देते हैं, किन्तु सत्य तो यह है कि भारत में 'फ़ैज़' की इस प्रकार की ग़ज़लें 'मजरूह' की ग़ज़लों के छः-सात वर्ष बाद ही आयी। 'मजरूह' के बहुत से साहित्यिक शेर आज लोगों की ज़बानों पर हैं, जिन्हें वे कवि का नाम जाने बिना भी अपनी बात को असरदार बनाने के लिए प्रस्तुत कर लेते हैं।
"मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया"
'मजरूह सुल्तानपुरी के गीत, ग़ज़ल, फ़िल्मी नग़्मों का यह गुलदस्ता पाठकों की नज़र है।