Mela
मेला -
भारतवर्ष मेलों का देश है। हर गाँव में, क़स्बे में, शहर में, हर साल कोई-न-कोई जुलूस, तमाशा होता है। इनमें से हर एक किसी-न-किसी घटना, त्यौहार या पर्व से जुड़ा होता है। मेले लगते भी ख़ास जगहों पर हैं। किसी मन्दिर के सामने, बाबा की कुटिया के पास, पीर के मज़ार के चारों ओर या फिर किसी तालाब या नदी के किनारे लेकिन गंगा के किनारे लगने वाले मेलों की बात ही और है। हज़ारों-लाखों गाँववासी बरबस खिंचे चले आते हैं इस नदी के तट पर। क्यों भला? क्या मिलता है गंगा तट पर? ऐसा क्या है गंगा में कि जिसकी वजह से ठण्ड से ठिठुरती औरतें, बच्चे, बूढ़े सभी डुबकी लगाकर नहाते हैं। शायद गंगा में पाप धोने की शक्ति है और पुण्य देने की भी। लेकिन इसे प्रदूषित करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। आख़िर कहाँ तक पाप धोयेगी गंगा! इसी प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश की गयी है इस उपन्यास में।
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
मुशायरा शुरू होने के साथ-ही-साथ मेले में विचरण कर रहे कला और संगीत के प्रेमी भी पण्डाल की ओर चल दिये। रात्रिकाल कार्यक्रमों में रूचि रखनेवाले अन्य लोग नौटंकी, सरकस और डांस-ड्रामा देखने के लिए मेले में मनोरंजन-क्षेत्र में चले गये। गंगा नहाने वाले ग्रामीणों को चूँकि दूसरे दिन सुबह पाँच बजे ही उठना था इसलिए उनमें से भी ज़्यादातर जहाँ जगह मिली, वहाँ सोने की कोशिश करने लगे। ड्यूटी पर तैनात पुलिस और होमगार्ड के जवान भी दिन भर की मशक्कत से थक गये थे और सुस्ता रहे थे। फायर ब्रिगेड के जवान सन्तुष्ट थे कि हमेशा की तरह उनकी सेवाओं की आवश्यकता आज भी नहीं पड़ेगी। निश्चित थे और किसी भी मुसीबत से निपटने के लिए आत्मविश्वास से भरे हुए अपनी जगहों पर ऊँघ रहे थे।
Publication | Vani Prakashan |
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