Mujtaba Husain Ke Khake
मुज्तबा हुसैन के ख़ाके -
बरसात के मौसम में आपने कभी यह मंजर देखा होगा कि एक तरफ़ तो हलकी सी फुहार पड़ रही है और दूसरी तरफ़ आसमान पर धुला-धुलाया सूरज छमाछम चमक रहा है। इस मंजर को अपने जेहन में ताज़ा कर लीजिए तो समझिए कि आप इस मंजर में नहीं, (राजिंदर सिंह) बेदी साहब की शख़्सियत में काफ़ी दूर तक चले गये हैं।
जब तकरीर के लिए उनका नाम पुकारा गया, तो वो (सज्जाद जहीर) हाजिरीन के सामने वाली कतार में से उठकर यूँ सुबुक खरामी के साथ माइक पर आये कि उन्हें देखने की सारी आरजू का सत्यानाश हो गया। उनके चलने में ऐसी नर्मी, आहिस्तगी, ठहराव और धीमापन था कि एकबारगी मुझे यह वजह समझ में आ गयी कि हमारे मुल्क़ में इन्क़िलाब के आने में इतनी देर क्यों हो रही है।
इसके बाद मोहतरिमा ने हारमोनियम सँभालकर जो गाना शुरू किया तो समा बाँध दिया। इस क़दर ख़ूबसूरत आवाज़ थी कि बस कुछ ना पूछिए। मैं दाद देते-देते थक सा गया मगर शह्रयार ख़ामोश बैठे रहे। मैंने आहिस्ता से कान में कहा, शह्रयार क्या मजाक है? दाद तो दीजिए। जवाबन आहिस्ता से बोले, कैसे दाद दूँ? कमबख़्त ने मेरी ही ग़ज़ल छोड़ दी है। कहीं अपने ही क़लाम पर दाद दी जाती है?'
ये कुछ उदाहरण हैं उर्दू के शीर्ष व्यंग्यकार मुज्तबा हुसैन की तीख़ी, पर हार्दिक शैली के, जिसकी चाशनी में डुबो कर उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में आये अदीबों और अदब पसन्दों के जीवन्त रेखाचित्र प्रस्तुत किये हैं। इनमें राजिंदर सिंह बेदी, कृश्न चंदर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे कथाकार और फिल्म निर्माता हैं तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, शायर और क़तील शिफाई जैसे कवि भी। खुशवंत सिंह, एम.एफ. हुसैन, इंद्रकुमार गुजराल और देवकीनंदन पांडेय जैसी शख़्सियतें भी हैं। हर खाका अपने आप में बेजोड़ है और लेखक की चुलबुली शैली, गहराई और गरमाहट का शाहकार नमूना। और आख़िर में आत्मश्राद्ध, जिसमें वे ख़ुद अपना ही कार्टून बनाते हैं।