Nirbandh : Mahasamar-8 (Deluxe Edition)
महासमर ¬ - खण्ड – 8 -
निर्बन्ध, महासमर का आठवाँ खण्ड है। इसकी कथा द्रोण पर्व से आरम्भ होकर शान्ति पर्व तक चलती है। कथा का अधिकांश भाग तो युद्धक्षेत्र में से होकर ही अपनी यात्रा करता है। किन्तु यह युद्ध केवल शस्त्रों का युद्ध नहीं है। यह टकराहट मूल्यों और सिद्धान्तों की भी है और प्रकृति और प्रवृत्तियों की भी घटनाएँ और परिस्थितियाँ अपना महत्त्व रखती हैं। वे व्यक्ति के जीवन की दिशा और दशा निर्धारित अवश्य करती हैं; किन्तु यदि घटनाओं का रूप कुछ और होता तो क्या मनुष्यों के सम्बन्ध कुछ और हो जाते? उनकी प्रकृति बदल जाती? कर्ण को पहले ही पता लग जाता कि यह कुत्ती का पुत्र है तो क्या वह पाण्डवों का मित्र हो जाता? कृतवर्मा और दुर्योधन तो श्रीकृष्ण के समधी थे, वे उनके मित्र क्यों नहीं हो पाये? बलराम श्रीकृष्ण के भाई होकर भी उनके पक्ष से क्यों नहीं लड़ पाये? अन्तिम समय तक वे दुर्योधन की रक्षा का प्रबन्ध ही नहीं, पाण्डवों की पराजय के लिए प्रयत्न क्यों करते रहे? ऐसे ही अनेक प्रश्नों से जूझता है यह उपन्यास।
इस उपन्यास श्रृंखला का पहला खण्ड था बन्धन और अन्तिम खण्ड है आनुषंगिक बन्धन। भीष्म से आरम्भ हुआ था और एक प्रकार से निर्बन्ध भीष्म पर ही जाकर समाप्त होता है। किन्तु अलग-अलग प्रसंगों में एकाधिक पात्र नायक का महत्त्व अंगीकार करते दिखाई देते हैं। शान्ति पर्व के अन्त में भीष्म तो बन्धनमुक्त हुए ही हैं, पाण्डवों के बन्धन भी एक प्रकार से टूट गये हैं। उनके सारे बाहरी शत्रु मारे गये हैं। अपने सम्बन्धियों और प्रिय जनों से भी अधिकांश को जीवनमुक्त होते उन्होंने देखा है। पाण्डवों के लिए भी माया का बन्धन टूट गया है। वे खुली आँखों से इस जीवन और सृष्टि का वास्तविक रूप देख सकते हैं। अब वे उस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहाँ वे स्वर्गारोहण भी कर सकते हैं और संसारारोहण भी प्रत्येक चिन्तनशील मनुष्य के जीवन में एक वह स्थल आता है; जब उसका बाहरी महाभारत समाप्त हो जाता है और वह उच्चतर प्रश्नों के आमने-सामने आ खड़ा होता है। पाठक को उसी मोड़ तक ले आया है 'महासमर' का यह खण्ड 'निर्बन्ध'।
प्रख्यात कथाओं का पुनःसर्जन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता; वह उनका युग- सापेक्ष अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के वृक्ष से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष, पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतन्त्र अस्तित्व होता है; वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।
मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की सम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के 'प्राचीन' में घिरकर प्रगति के प्रति अन्धे हो जाने की सम्भावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बन्दी हो, एक खण्ड-सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सर्जक साहित्यकार का सत्य अपने काल खण्ड का अंग होते हुए भी, खण्डों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।
नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है 'महासमर' । घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से सम्बद्ध हैं; किन्तु यह कृति एक उपन्यास है-आज के एक लेखक का मौलिक सृजन!